अऊजु बिल्लाह की तफ्सीर और उसके अहकाम कुरआन पाक में है:

अऊजु बिल्लाह की तफ्सीर और उसके अहकाम कुरआन पाक में है:

अऊजु बिल्लाह की तफ्सीर और उसके अहकाम कुरआन पाक में है:

पिछली आयत।   सुर: फातिहा   अगलीआयत।

(Tafsir Ibn kathir in Hindi जिल्द 1 पारा 1)

तफसीर इब्न कसीर सूरह फातिहा :

خُذِ الْعَفْوَ …. الخ.

 

यानी दरगुज़र (माफ) करने की आदत रखो, भलाई का हुक्म किया करो और जाहिलों से मुँह मोड़ लिया करो। अगर शैतान की तरफ से कोई वस्वसा (बुरा ख्याल) आ जाये तो सब कुछ सुनने वाले अल्लाह तआला से पनाह तलब किया करो। एक और जगह फरमायाः

 

الخ.

 

ادْفَعْ بِالَّتِي..

 

बुराई को भलाई से टाल दो। हम उनके बयानात को खूब जनाते हैं, कहा करो कि खुदाया शैतान के वस्वसों और उनकी हाजिरी से हम तेरी पनाह चाहते हैं। एक और जगह इरशाद होता हैः

 

الخ. यानी भलाई के साथ दफा (दूर) करो, तुममें और जिस दूसरे शख्स में अदावत (दुश्मनी) होगी वह ऐसा हो जायेगा जैसे वली दोस्त। ये काम सब्र करने वालों और खुश-किस्मतों का है। जब शैतानी वस्वसा (ख्याल) आ जाये तो अल्लाह तआला सुनने वाले जानने वाले से पनाह चाहो।

 

ادْفَع بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي..

 

ये तीन आयतें हैं और इस मायने की कोई और आयत नहीं, अल्लाह तआला ने इन आयतों में हुक्म फरमाया है कि इनसानों में से जो तुम्हारी दुश्मनी करे उसकी दुश्मनी का इलाज तो यह है कि उसके साथ • सुलूक व एहसान का बर्ताव करो, ताकि उसकी इन्साफ-पसन्द तबीयत खुद उसे शर्मिन्दा करे और वह – तुम्हारी दुश्मनी से न सिर्फ बाज़ रहे बल्कि तुम्हारा बेहतरीन दोस्त बन जाये। और शयातीन की दुश्मनी से  महफूज़ रहने के लिये उसने अपनी पनाह पकड़नी सिखाई, क्योंकि यह पलीद दुश्मन सुलूक और एहसान से • भी कब्ज़े में नहीं आता। उसे तो इनसान की तबाही व बरबादी में ही मज़ा आता है और उसकी पुरानी

अदावत (दुश्मनी) बावा आदम के वक्त से है। कुरआन फरमाता है ऐ बनी आदम! देखो कहीं शैतान तुम्हें

 

भी बहका न दे जिस तरह तुम्हारे बाप को बहकाकर जन्नत से निकलवा दिया। एक और जगह फरमाया कि

 

शैतान तुम्हारा दुश्मन है, उसे दुश्मन ही समझो, उसकी जमाअत की तो यही आरज़ू है कि तुम जहन्नमी हो  जाओ। एक और जगह फरमाया- क्या तुम उस शैतान की और उसकी नस्ल की दोस्ती करते हो, मुझे छोड़कर? वह तो तुम्हारा दुश्मन है। याद रखो ज़ालिमों के लिये बुरा बदला है। यही है जिसने कसम खाकर हमारे बाप हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से कहा था कि मैं तुम्हारा • खैरख्वाह (हमदर्द) हूँ तो अब ख्याल कर लीजिए कि हमारे साथ उसका क्या मामला होगा? हमारे लिये तो वह हलफ उठाकर आया है कि खुदा की इज़्ज़त की कसम मैं इन सबको बहकाऊँगा। हाँ, इनमें से जो मुखिलस बन्दे हैं वे महफूज़ रह जायेंगे। इसलिये अल्लाह तआला का फरमान हैः

 

فَإِذَا قَرَأْتَ الْقُرْآنَ فَاسْتَعِذْ بِاللَّهِ مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّحِيمِ

 

जब कुरआन की तिलावत करो तो अल्लाह तआला से पनाह तलब कर लिया करो, शैतान धुतकारे हुए से। ईमान वालों और अल्लाह पर भरोसा करने वालों पर उसका कोई ज़ोर नहीं। उसका ज़ोर तो उन्हीं पर है  जो उससे दोस्ती रखें और खुदा के साथ शिर्क करें।

 

कारियों की एक जमाअत तो कहती है कि कुरआन पढ़ चुकने के बाद “अऊजु बिल्लाहि मिनश् शैतारिनर्रजीम” पढ़नी चाहिये, इसमें दो फायदे हैं, एक तो कुरआन के तर्जे बयान पर अमल, दूसरे इबादत  के बाद के गुरूर का तोड़। अबू हातिम सजिस्तानी ने और इब्ने कलूका ने हमज़ा का यही मज़हब नकल  किया है, जैसे अबुल-कासिम यूसुफ बिन अली बिन जनादा ने अपनी किताब ‘अल-इबादतुल-कामिला’ में बयान किया है। हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. से भी यही मरवी है लेकिन सनद गरीब है। इमाम राज़ी ने अपनी  तफ्सीर में इसे नक्ल किया है और कहा है कि इब्राहीम नखई, दाऊद ज़ाहिरी का भी यही कौल है। इमाम कुर्तुबी ने इमाम मालिक रह. का मज़हब भी यही बयान किया है लेकिन इब्ने-अरबी इसे गरीब कहते हैं। एक मज़हब यह भी है कि अव्वल आख़िर दोनों मर्तबा “अऊजु बिल्लाह…….” पढ़े ताकि दोनों दलीलें जमा  हो जायें और जमहूर उलेमा का मशहूर मज़हब यह है कि तिलावत से पहले “अऊजु बिल्लाह….” पढ़ना चाहिये ताकि वस्वसे (बुरे ख्यालात) दूर हो जायें। तो इन बुजुर्गों के नज़दीक आयत के मायने “जब पढ़े तो” यानी “जब पढ़ना चाहे तो” हो जायेंगे जैसे कि इस आयत में है:

 

الخ. إِذَا قُمْتُمْ إِلَى الصَّلوة ..

 

यानी जब तुम नमाज़ के लिये खड़े होओ (तो वुज़ू कर लिया करो) के मायने हैं कि जब तुम नमाज़ के लिये खड़े होने का इरादा करो।

 

हदीसों की रू से भी यही मायने ठीक मालूम होते हैं। मुस्नद अहमद की हदीस में है कि जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रात को नमाज़ के लिये खड़े होते तो अल्लाहु अकबर कहकर नमाज़ शुरू करते, फिर “सुब्हानकल्लाहुम्-म व बि-हम्दि-क व तबारकस्मु-क व तआला जदु-क व ला इला-ह गैरु-क” तीन बार पढ़कर “ला इला-ह इल्लल्लाहु” पढ़ते, फिर “अऊजु बिल्लाहिस्समीअिल् अलीमि मिनश्शैतानिर्रजीमि मिन् ह-मज़िही व नखिही व न-फसिही” पढ़ते। सुनन अर्ब में भी यह हदीस है। इमाम तिर्मिज़ी रह. फरमाते हैं कि इस बाब में सबसे ज़्यादा मशहूर यही है। ‘ह-मज़ा’ के मायने गला घोंटने  के और ‘नफ़्ख’ के मायने तकब्बुर के और ‘न-फ्स’ के मायने शे’र कहने के हैं। इब्ने माजा की एक रिवायत में यही मायने बयान किये गये हैं और उसमें है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नमाज़ में दाखिल होते ही तीन मर्तबा “अल्लाहु अक्बर कसीरा” तीन मर्तबा “अल्हम्दु लिल्वाहि कसीरा” और तीन • मर्तबा “सुब्हानल्लाहि बुक्रतंव्-व असीला” पढ़ते। फिर यह पढ़ते “अऊजु बिल्लाहि मिनश्शैतानि मिन् ह-मज़िही व नफ्खिही व न-फसिही”। इब्ने माजा में एक और सनद के साथ यह रिवायत मुख़्तसर भी आयी है। मुस्नद अहमद की हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पहले तीन मर्तबा तकबीर कहते • फिर तीन मर्तबा “सुब्हानल्लाहि व बि-हम्दिही” कहते फिर “अऊजु बिल्लाह…..” आखिर तक पढ़ते। मुस्नद अबू यञ्जला में है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने दो शख्स लड़ने झगड़ने लगे, गुस्से के मारे एक के नथुने फूल गये। आपने फरमाया कि अगर यह “अऊजु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम”  कह ले तो इसका गुस्सा अभी जाता रहे। नसाई ने अपनी किताब “अल-यौमु वल्लैलतु” में भी इसे रिवायत किया है। मुस्नद अहमद अबू दाऊद, तिर्मिज़ी में भी यह हदीस है। इसकी एक रिवायत में इतनी ज़्यादती और भी है कि हज़रत मुआज़ रज़ि. ने उस शख्स से इसके पढ़ने को कहा लेकिन उसने न पढ़ा और उसका गुस्सा बढ़ता ही गया। इमाम तिर्मिज़ी रह. फरमाते हैं यह ज़्यादती वाली रिवायत मुर्सल है, इसलिये कि अब्दुर्रहमान बिन अबी लैला जो हज़रत मुआज़ रज़ि. से इसे रिवायत करते हैं, उनका हज़रत मुआज़ रज़ि. से मुलाकात करना साबित नहीं, बल्कि यह बीस बरस पहले इन्तिकाल कर चुके थे, लेकिन यह हो सकता है। कि शायद अब्दुर्रहमान ने हज़रत उबई बिन कअब रज़ि. से सुना हो, वह भी इस हदीस के रावी हैं और इसे हज़रत मुआज़ रज़ि. तक पहुँचाया हो, क्योंकि इस वाकिए के वक़्त तो बहुत से सहाबा मौजूद थे। सही बुखारी, सही मुस्लिम, अबू दाऊद, नसाई में भी मुख्तलिफ सनदों से मुख्तलिफ अलफाज़ के साथ यह हदीस  मरवी है। इस्तिआज़ा (शैतान से अल्लाह की पनाह माँगने) के बारे में और भी बहुत-सी हदीसें हैं, यहाँ सब को बयान करने से बात बहुत लम्बी हो जायेगी। उनके बयान के लिये अज़कार व वज़ाईफ की और फज़ाईले आमाल के बयान की किताबें हैं। वल्लाहु आलम।

 

:

 

एक रिवायत में है कि जिब्राईल अलैहिस्सलाम जब सबसे पहले ‘वही’ लेकर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आये तो पहले “अऊजु बिल्लाह” पढ़ने का हुक्म दिया। तफ्सीर इब्ने जरीर में हज़रत  अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि. से रिवायत है कि पहले पहल हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर वही लेकर आये तो फरमाया “अऊजु बिल्लाह….” पढ़िये आपने फरमायाः

 

कि मैं अल्लाह सब कुछ जाने वाले सुनने वाले की पनाह चाहता हूँ शैतान मर्दूद से। फिर जिब्राईल अलैहिस्सलाम ने कहा- कहिये ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” फिर कहाः

 

اسْتَعِيذُ

 

بِاللَّهِ السَّمِيعِ الْعَلِيمِ مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّحِيمِ.

 

اقْرَأْ بِاسْمِ رَبِّكَ الَّذِي خَلَقَ.

 

“इक़र बिस्मि रब्बिकल्लज़ी ख़-ल-क………..।

 

हज़रत अब्दुल्लाह रज़ि. फरमाते हैं कि सबसे पहली सूरत जो अल्लाह तआला ने हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम के ज़रिये हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर नाज़िल फरमाई यही है, लेकिन यह कौल गरीब है और इसकी सनद में कमज़ोरी व इन्किता है। हमने इसे सिर्फ इसलिये बयान किया है कि मालूम रहे। वल्लाहु आलम ।

 

मसला

 

जमहूर उलेमा हज़रात का कौल है कि Ashraj

 

55

 

“अऊजु बिल्लाह…..” पढ़ना मुस्तहब है, वाजिब नहीं, कि इसके न पढ़ने से गुनाह हो। अता बिन अबू रिबाह का कौल है कि जब कभी कुरआन पढ़े “अऊजु • बिल्लाह… का पढ़ना वाजिब है, चाहे नमाज़ में हो चाहे गैर-नमाज़ में। इमाम राज़ी रह. ने यह कौल नक्ल किया है। इब्ने सीरीन रह. फरमाते हैं कि उम्र भर में सिर्फ एक मर्तबा पढ़ लेने से वजूब ज़िम्मे से • उतर जाता है। हज़रत अता के कौल की दलील आयत के ज़ाहिरी अलफाज़ हैं क्योंकि इसमें “फस्तज़िज़ • बिल्लाहि” (अल्लाह से पनाह तलब कर) अमर (हुक्म) है और अरबी के क्वाईद व ग्रामर के लिहाज़ से •अमर वजूब के लिये होता है इसी लिये हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इस पर हमेशगी करना भी • वजूब की दलील है और इससे शैतान का शर (बुराई) दूर होता है और उसका दूर करना वाजिब है और और जिस चीज़ से वाजिब पूरा होता हो वह भी वाजिब हो जाती है, और इस्तिआज़ा (अऊजु बिल्लाह… पढ़ना) ज़्यादा एहतियात वाला है। और वजूब का एक तरीका यह भी है। बाज़ उलेमा का कौल है कि “अऊजु बिल्लाह…..” पढ़ना हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर वाजिब था, आपकी उम्मत पर वाजिब नहीं। इमाम मालिक रह. से यह भी रिवायत की जाती है कि फर्ज़ नमाज़ में “अऊजु बिल्लाह…..” पढ़े

 

और रमज़ान शरीफ की अव्वल रात की नमाज़ में पढ़ ले।

 

(मसला)

 

इमाम शाफई रह. इमला में लिखते हैं कि “अऊजु बिल्लाह……” ज़ोर से पढ़े और अगर धीरे से पढ़े तो कोई हर्ज नहीं, और इमाम अहमद इब्ने हंबल रह. लिखते हैं कि बुलन्द और आहिस्ता पढ़ने में इख़्तियार है, इसलिये कि हज़रत इब्ने उमर रज़ि. से पोशीदा पढ़ना और हज़रत अबू हुरैरह रजि. से ऊँची आवाज़ से पढ़ना साबित है। पहली रक्अत के सिवा और रक्अतों में “अऊजु बिल्लाह…..” पढ़ने में इमाम शाफई रह. के दो कौल हैं, एक मुस्तहब होने का और दूसरा मुस्तहब न होने का, और तरजीह दूसरे कौल को ही है। वल्लाहु आलम। सिर्फ “अऊजु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम” कह लेना इमाम शाई रह. और इमाम अबू हनीफा रह. के नज़दीक तो काफी है, लेकिन बाज़ कहते हैं कि “अऊजु बिल्लाहिस्समीअिल अलीमि मिनश्शैतानिर्रजीम” पढ़े, और बाज़ कहते हैं कि “अऊजु बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीमि इन्नल्ला-ह हुवस्समीउल अलीम” पढ़े। इमाम सुफियान सौरी और इमाम औज़ाई का यही मज़हब है। बाज़ कहते हैं कि “अस्तीजु बिल्लाहि मिश्शैतानिर्रजीम” पढ़े ताकि आयत के पूरे अलफाज़ पर अमल हो जाये और इब्ने अब्बास रज़ि. की हदीस पर भी अमल हो जाये जो पहले गुज़र चुकी, लेकिन जो सही हदीसें पहले गुज़र चुकीं उनकी पैरवी और उन पर अमल ज़्यादा मुनासिब है। वल्लाहु आलम। नमाज़ में “अऊजु बिल्लाह…..” का पढ़ना इमाम अबू हनीफा और इमाम मुहम्मद रह. के नज़दीक तो

 

तिलावत के लिये है और इमाम अबू यूसुफ रह. के नज़दीक नमाज़ के लिये है, तो मुक्तदी को भी पढ़ लेना

 

चाहिये अरगचे वह किराअत नहीं पढ़ेगा, और ईद की नमाज़ में भी पहली तकबीर के बाद पढ़ लेना चाहिये,

 

जमहूर का मज़हब यह है कि ईद की तमाम तकबीरें कहकर फिर “अऊजु बिल्लाह……” पढ़े फिर किराअत

 

करे। “अऊजु बिल्ला…..” में अजीब व गरीब फायदे हैं, उल्टी-सीधी बातों से मुँह में जो नापाकी होती है

 

वह इससे दूर हो जाती है और मुँह अल्लाह के कलाम की तिलावत के काबिल हो जाता है। इसी तरह इसमें  अल्लाह तआला से इमदाद तलब करनी है और उसकी अज़ीमुश्शान कुदरतों का इकरार करना है, और इस  बातिनी (अन्दर के) खुले हुए दुश्मन के मुकाबले में अपनी कमज़ोरी और आजिज़ी का इकार है, क्योंकि इनसानी दुश्मन का मुकाबला हो सकता है, एहसान और सुलूक से उसकी दुश्मनी दूर और ख़त्म हो सकती है जैसा कि कुरआन पाक की उन तीन आयतों में है जो पहले बयान हो चुकी हैं। एक और जगह खुदा तआला का इरशाद है:

 

الخ. إِنَّ عِبَادِي لَيْسَ لَكَ عَلَيْهِمْ سُلْطَنٌ . यानी मेरे ख़ास बन्दों पर तेरा कोई गलबा नहीं, रब का वकील होना काफी है।

 

अल्लाह तआला ने इस्लाम के दुश्मनों के मुकाबले पर अपने पाक फरिश्ते भेजे और उन्हें नीचा दिखा दिया। यह याद रखने के काबिल बात है कि जो मुसलमान काफिरों के हाथ से मारा जाये वह शहीद है, लेकिन जो इस बातिनी शैतान के हाथ से मारा जाये वह रान्दा-ए-दरगाह (अल्लाह की बारगाह से धुतकारा हुआ) है। जिस पर काफि ग़ालिब आ जायें वह अज्र पाता है लेकिन जिस पर शैतान गालिब आ जाये वह हलाक व बरबाद होता है। चूँकि शैतान इनसान को देखता है और इनसान उसे नहीं देख सकता इसलिये कुरआनी तालीम हुई कि तुम उसके शर से उसकी पनाह चाहो जो उसे देखता है और यह उसे नहीं देख सकता।

 

फस्ल

 

“अऊजु बिल्लाह……” पढ़ना अल्लाह तआला की तरफ इल्तिजा करना है और हर बुराई वाले की बुराई से उसके दामन में पनाह तलब करना है। ‘अयाज़ा’ के मायने बुराई के दूर करने के हैं और ‘लयाज़ा’ के मायने भलाई हासिल करने के हैं। मुतनब्बती का शे’र हैः و من اعوذ به مما احاذره

 

يا من الوذ به في ما اومله لا يجبر الناس عظما انت كاسره ولا يهيضون عظما انت جابره

 

ऐ वह पाक ज़ात जिसकी ज़ात से मेरी तमाम उम्मीदें वाबस्ता (जुड़ी हुई) हैं। और ऐ वह परवर्दिगार कि तमाम बुराईयों से मैं उसकी पनाह पकड़ता हूँ। जिसे वह तोड़े उसे कोई जोड़ नहीं सकता, और जिसे वह जोड़ दे उसे कोई तोड़ नहीं सकता।

 

“अऊजु बिल्लाह…..” के मायने यह हैं कि मैं अल्लाह तआला की पनाह पकड़ता हूँ कि शैतान रजीम मुझे दीन व दुनिया में कोई ज़रर (नुक्सान और बुराई) न पहुँचा सके। जिन अहकाम पर अमल करने का मुझे हुक्म है ऐसा न हो कि मैं उनसे रुक जाऊँ और जिन कामों से मुझे मना किया गया हो ऐसा न हो कि मुझसे वे बुरे आमाल हो जायें। यह ज़ाहिर है कि शैतान से बचाने वाला सिवाय खुदा तआला के और कोई नहीं। इसी लिये परवर्दिगारे आलम ने इनसानों के शर (बुराई) से महफूज़ रहने की तो तरकीब सुलूक व एहसान वगैरह बतलाई और शैतान के शर से बचने की सूरत यह बतलाई कि हम उसकी पाक ज़ात से पनाह तलब करें। इसलिये कि न तो उसे रिश्वत दी जा सकती है न वह भलाई और सुलूक की वजह से अपनी शरारत से बाज़ आयेगा। उसकी बुराई से बचाने वाला तो सिर्फ अल्लाह तआला ही है। तीनों पहली आयतों में यह मज़मून गुज़र चुका है। सूरः आराफ में है:

 

خُذِ الْعَفْوَ .. الخ. ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ …… الخ. .الخ .. وَلَا تَسْتَوِي الْحَسَنَةُ ..

 

इन तीनों आयतों का विस्तृत बयान और तर्जुमा पहले गुज़र चुका है।

 

लफ्ज़ ‘शैतान’ की लुगवी तहकीक

 

लफ़्ज़ शैतान “श-त-न” से बना है। इसके लफ़्ज़ी मायने दूरी के हैं। चूँकि यह मर्दूद भी इनसानी तबीयत से दूर है बल्कि हर भलाई से दूर है इसलिये इसे शैतान कहते हैं। और यह भी कहा गया है कि “शात” से निकला है इसलिये कि वह आग से पैदा शुदा है और “शात” के मायने यही हैं। बाज़ कहते हैं  कि मायने की रू से तो दोनों ठीक हैं लेकिन पहला ज़्यादा सही है। अरब शायरों के शे’र भी इसकी तस्दीक • में मिलते हैं। उमैया बिन अबू सल्त और नाबिगा के शे’रों में भी यह लफ़्ज़ “श-त-न” से मुश्तक (निकला  हुआ) है और दूर होने के मायने में प्रयोग है। सीबवैह का कौल है कि जब कोई शैतानी काम करे तो अरब  कहते हैं “तशय्य-न फुलानुन” (फुलाँ ने शैतानी हरकत की) यह नहीं कहते कि “तशय्य-त फुलानुन” इससे साबित होता है कि यह लफ़्ज़ “शात” से नहीं बल्कि “श-त-न” से लिया गया है और इसके सही मायने भी दूरी के हैं, जो जिन्न, इनसान और हैवान सरकशी करे उसे शैतान कह देते हैं। कुरआन पाक में हैः

 

وَكَذَالِكَ جَعَلْنَا لِكُلِّ نَبِي عَدُوًّا شَيَاطِينَ الْإِنْسِ وَالْجِنِّ …… الخ. यानी इसी तरह हमने हर नबी के दुश्मन शयातीन जिन्नात व इनसान किये हैं, जो आपस में एक दूसरे •को धोखे की बनावटी बातें पहुँचाते रहते हैं।

 

मुस्नद अहमद में हज़रत अबू ज़र रज़ि. से हदीस है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें फरमाया- ऐ अबूज़र ! जिन्नात और इनसानों में के शैतानों से अल्लाह तआला की पनाह तलब करो। मैंने • कहा क्या इनसानों में भी शैतान होते हैं? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया हाँ। सही मुस्लिम शरीफ में इन्हीं से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- नमाज़ को औरत, गधा और काला कुत्ता तोड़ देता (यानी इनके सामने से गुज़रने में उसमें खलल पड़ता) है। मैंने कहा हुजूर!  सुर्ख़ ज़र्द कुत्तों में से काले कुत्ते को ख़ास करने की क्या वजह है? आपने फरमाया काला कुत्ता शैतान है। • हज़रत उमर रजि. एक मर्तबा तुर्की घोड़े पर सवार होते हैं, वह नाज़ और मस्ती से चलता है, हज़रत उमर रज़ि. उसे मारते पीटते भी हैं लेकिन उसका अकड़ना और भी बढ़ जाता है, आप उतर पड़ते हैं और फरमाते हैं तुम तो मेरी सवारी के लिये शैतान को पकड़ लाये, मेरे नफ़्स में तकब्बुर आने लगा। चुनाँचे मैंने उससे

 

उतर पड़ना ही मुनासिब समझा। ‘रजीम’ फील के वज़न पर मफऊल के मायने में है, कि वह “मरजूम” है यानी हर भलाई से दूर है। जैसे कि अल्लाह तआला ने फरमायाः  وَلَقَدْ زَيَّنَّا السَّمَاءَ الدُّنْيَا بِمَصَابِيحَ ..

الخ 

हमने दुनिया के आसमान को सितारों से सजाया और उन्हें शैतानों के लिये ‘रजम’ बनाया।

 

यानी हमने दुनिया वाले आसमान को सितारों से ज़ीनत दी और हर सरकश शैतान से बचाव बनाया। वे आला फरिश्तों की बातें नहीं सुन सकते और हर तरफ से मारे जाते हैं भगाने के लिये और लाज़िमी अज़ाब उनके लिये है, जो उनमें से कोई बात उचक कर भागता है उसके पीछे एक चमकीला शोला लगता है। एक और जगह इरशाद हैः

 

الخ.وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاءِ بُرُوجًا ..यानी हमने आसमान में बुर्ज बनाये और उन्हें देखने वालों के लिये ज़ीनत (सजावट की और अच्छी लगने वाली चीज़) बनाया और उसे हर धुतकारे हुए शैतान से हमने महफूज़ कर लिया, मगर जो किसी बात 

 

को चुरा ले जाये उसके पीछे चमकता हुआ शोला लगता है। इसी तरह और आयतें भी हैं “रजीम” के एक मायने “राजिम” (रजम करने वाले) के भी किये गये हैं। चूँकि शैतान लोगों को वस्वसों और गुमराहियों से “रजम” करता है इसलिये “रजीम” यानी “राजिम”

 

कहते हैं। अब “बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” की तफसीर सुनिये। Surah Fatiha Tafseer in Hindi بسم الله الرحمن الرحيم

 

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