लफ्ज़ ‘शैतान’ की लुगवी तहकीक मानी कुरान से

लफ्ज़ ‘शैतान’ की लुगवी तहकीक।

लफ्ज़ शैतान के क्या मानी है कुरान में तफसीर इब्न कसीर लिखते हैं।

लफ्ज़ ‘शैतान’ की लुगवी तहकीक ।

 

लफ़्ज़ शैतान “श-त-न” से बना है। इसके लफ़्ज़ी मायने दूरी के हैं। चूँकि यह मर्दूद भी इनसानी तबीयत से दूर है बल्कि हर भलाई से दूर है इसलिये इसे शैतान कहते हैं। और यह भी कहा गया है कि “शात” से निकला है इसलिये कि वह आग से पैदा शुदा है और “शात” के मायने यही हैं। बाज़ कहते हैं ■ कि मायने की रू से तो दोनों ठीक हैं लेकिन पहला ज़्यादा सही है। अरब शायरों के शे’र भी इसकी तस्दीक • में मिलते हैं। उमैया बिन अबू सल्त और नाबिगा के शे’रों में भी यह लफ़्ज़ “श-त-न” से मुश्तक (निकला ■ हुआ) है और दूर होने के मायने में प्रयोग है। सीबवैह का कौल है कि जब कोई शैतानी काम करे तो अरब ■ कहते हैं “तशय्य-न फुलानुन” (फुलाँ ने शैतानी हरकत की) यह नहीं कहते कि “तशय्य-त फुलानुन” इससे साबित होता है कि यह लफ़्ज़ “शात” से नहीं बल्कि “श-त-न” से लिया गया है और इसके सही मायने भी दूरी के हैं, जो जिन्न, इनसान और हैवान सरकशी करे उसे शैतान कह देते हैं। कुरआन पाक में हैः

 

وَكَذَالِكَ جَعَلْنَا لِكُلِّ نَبِي عَدُوًّا شَيَاطِينَ الْإِنْسِ وَالْجِنِّ …… الخ. यानी इसी तरह हमने हर नबी के दुश्मन शयातीन जिन्नात व इनसान किये हैं, जो आपस में एक दूसरे •को धोखे की बनावटी बातें पहुँचाते रहते हैं।

 

मुस्नद अहमद में हज़रत अबू ज़र रज़ि. से हदीस है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें फरमाया- ऐ अबूज़र ! जिन्नात और इनसानों में के शैतानों से अल्लाह तआला की पनाह तलब करो। मैंने • कहा क्या इनसानों में भी शैतान होते हैं? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया हाँ। सही मुस्लिम शरीफ में इन्हीं से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- नमाज़ को औरत, गधा और काला कुत्ता तोड़ देता (यानी इनके सामने से गुज़रने में उसमें खलल पड़ता) है। मैंने कहा हुजूर! ■ सुर्ख़ ज़र्द कुत्तों में से काले कुत्ते को ख़ास करने की क्या वजह है? आपने फरमाया काला कुत्ता शैतान है। • हज़रत उमर रजि. एक मर्तबा तुर्की घोड़े पर सवार होते हैं, वह नाज़ और मस्ती से चलता है, हज़रत उमर रज़ि. उसे मारते पीटते भी हैं लेकिन उसका अकड़ना और भी बढ़ जाता है, आप उतर पड़ते हैं और फरमाते हैं तुम तो मेरी सवारी के लिये शैतान को पकड़ लाये, मेरे नफ़्स में तकब्बुर आने लगा। चुनाँचे मैंने उससे

 

उतर पड़ना ही मुनासिब समझा। ‘रजीम’ फील के वज़न पर मफऊल के मायने में है, कि वह “मरजूम” है यानी हर भलाई से दूर है। जैसे कि अल्लाह तआला ने फरमायाःوَلَقَدْ زَيَّنَّا السَّمَاءَ الدُّنْيَا بِمَصَابِيحَ ..

 

الخ.हमने दुनिया के आसमान को सितारों से सजाया और उन्हें शैतानों के लिये ‘रजम’ बनाया।

 

यानी हमने दुनिया वाले आसमान को सितारों से ज़ीनत दी और हर सरकश शैतान से बचाव बनाया। वे आला फरिश्तों की बातें नहीं सुन सकते और हर तरफ से मारे जाते हैं भगाने के लिये और लाज़िमी अज़ाब उनके लिये है, जो उनमें से कोई बात उचक कर भागता है उसके पीछे एक चमकीला शोला लगता है। एक और जगह इरशाद हैः

وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاءِ بُرُوجًا ..الخ.

यानी हमने आसमान में बुर्ज बनाये और उन्हें देखने वालों के लिये ज़ीनत (सजावट की और अच्छी लगने वाली चीज़) बनाया और उसे हर धुतकारे हुए शैतान से हमने महफूज़ कर लिया, मगर जो किसी बात

 

को चुरा ले जाये उसके पीछे चमकता हुआ शोला लगता है। इसी तरह और आयतें भी हैं “रजीम” के एक मायने “राजिम” (रजम करने वाले) के भी किये गये हैं। चूँकि शैतान लोगों को वस्वसों और गुमराहियों से “रजम” करता है इसलिये “रजीम” यानी “राजिम”

 

कहते हैं।

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