सुर : फातिहा तफसीर Hindi الحمد لله رب العالمين Surah Al Fatiha Tafseer hindi tafhimul Quran
सूर: फातिहा तफसीर हिन्दी Surah Al Fatiha Tafsir in Hindi तफहिमूल कुरान शरीफ तफसीर ट्रांसलेशन : । हाशिया-2 जैसा कि हम इस सूरा के तआरुफ़ (परिचय) में बयान कर चुके हैं कि सूरह फ़ातिहा असल में तो एक दुआ है, लेकिन दुआ की शुरुआत उस हस्ती की तारीफ़ से की जा रही है जिससे हम दुआ माँगना चाहते हैं। इसमें मानो ये बात सिखाई जा रही है कि दुआ जब माँगो तो अदब और मुहज़्ज़ब तरीक़े से माँगो। ये कोई तहज़ीब नहीं है कि मुँह खोलते ही झट अपना मतलब पेश कर दिया। अदब और तहज़ीब का तक़ाज़ा है कि जिससे दुआ कर रहे हो, पहले उसकी ख़ूबी को, उसके एहसानों को और उसके मर्तबे को तस्लीम करो।
الحمد لله رب العالمين(1)
[ 1] तारीफ़ अल्लाह ही के लिये है [ 2] जो सारे जहान का रब [ 3] [ पालनहार] है,
(प्रीवियस) [सुरा 1 आयत 1] (नेक्स्ट)

दुआ मांगने का सही तरीका। सुरत अल फातिहा आयत 1 तफसीर।
हाशिया-2 जैसा कि हम इस सूरह के तआरुफ़ (परिचय) में बयान कर चुके हैं कि सूरह फ़ातिहा असल में तो एक दुआ है, लेकिन दुआ की शुरुआत उस हस्ती की तारीफ़ से की जा रही है जिससे हम दुआ माँगना चाहते हैं। इसमें मानो ये बात सिखाई जा रही है कि दुआ जब माँगो तो अदब और मुहज़्ज़ब तरीक़े से माँगो। ये कोई तहज़ीब नहीं है कि मुँह खोलते ही झट अपना मतलब पेश कर दिया। अदब और तहज़ीब का तक़ाज़ा है कि जिससे दुआ कर रहे हो, पहले उसकी ख़ूबी को, उसके एहसानों को और उसके मर्तबे को तस्लीम करो।
सुरह अल फातिहा तफसीर आयत 1 : तफहिमूल कुरान हाशिया -2 (तारीफ़ हम जिसकी भी करते हैं, दो वजहों से किया करते हैं।अल्लाह की तारीफ़ इन दोनों हैसियतों से है )
सुरह अल फातिहा तफसीर आयत 1 : तफहिमूल कुरान हाशिया -2 : तारीफ़ हम जिसकी भी करते हैं, दो वजहों से किया करते हैं। एक ये कि वो ख़ुद में हुस्नो-ख़ूबी और कमाल रखता हो। ये देखे बिना कि हम पर उसकी इन मेहरबानियों का क्या असर है। दूसरा ये कि वो हमारा मुहसिन (उपकारक) हो और हम नेमत को तस्लीम करने के जज़्बे से लबरेज़ होकर उसकी ख़ूबियाँ बयान करें। अल्लाह की तारीफ़ इन दोनों हैसियतों से है। ये हमारी ज़बान हर वक़्त उसकी तारीफ़ बयान करने में लगी रहे। और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि तारीफ़ अल्लाह के लिये है बल्कि सही ये है कि तारीफ़ अल्लाह ही के लिये है। ये बात कहकर एक बड़ी हक़ीक़त पर से पर्दा उठाया गया है और वो हक़ीक़त ऐसी है जिसकी पहली ही चोट से मख़लूक़-परस्ती (स्रष्टि-पूजा) की जड़ कट जाती है। दुनिया में जहाँ, जिस चीज़ और जिस शक्ल में भी कोई हुस्न (सौन्दर्य), कोई ख़ूबी, कोई कमाल (पूर्णता) है, उसका सरचश्मा अल्लाह ही की ज़ात है, किसी इन्सान, किसी फ़रिश्ते, किसी देवता, किसी सितारे ग़रज़ किसी मख़लूक़ का कमाल भी उसका अपना नहीं है, बल्कि अल्लाह का दिया हुआ है।
इसलिये अगर कोई इसका हक़दार है कि हम उसके गिर्वीदा (दीवाना) और परस्तार, एहसानमन्द और शुक्रगुज़ार, नियाज़मंद और खादिम बनें तो वो खालिक़े-कमाल है, न कि कमालवाला।
- الحمد لله رب العالمين(1)
- [ 1] तारीफ़ अल्लाह ही के लिये है [ 2] जो सारे जहान का रब [ 3] [ पालनहार] है,
Surah Al Fatiha Tafseer Syed Abul Ala Moududi Tafhimul Quran الحمد لله رب العالمين(1) –
Surah Al Fatiha सुरह अल फातिहा तफसीर आयत 1 : तफहिमूल कुरान हाशिया -3 रब्ब (रब) का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तीन मानी में बोला जाता है-
हाशिया-3 रब्ब (रब) का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तीन मानी में बोला जाता है- (1) मालिक और आक़ा, (2) तरबियत करनेवाला, पालने-पोसनेवाला, ख़बरगीरी और देखभाल करनेवाला, और (3) शासक, हाकिम, मुदब्बिर (नियंता) और इन्तिज़ाम करनेवाला। अल्लाह इन सभी मानी में कायनात का रब है।
सुर: फातिहा तफसीर इब्न कसीर – الْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعَلَمِينَ )
الْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعَلَمِينَ
सब तारीफें अल्लाह तआला के लायक हैं जो पालने वाले हैं हर-हर आलम के। (1)
सातों कारी ‘अल्हम्दु’ को ‘दाल’ के पेश से पढ़ते हैं और ‘अल्हम्दु लिल्लाहि’ को मुब्तदा ख़बर मानते हैं। सुफियान बिन उयैना और रूबा बिन अज्जाज का कौल है कि ‘दाल’ के ज़बर के साथ और फेल यहाँ ■ मुकद्दर (पोशीदा) है। इब्ने अबी अबला ‘अल्हम्दु’ की ‘दाल’ को ‘लिल्लाहि’ के पहले ‘लाम’ को दोनों को • पेश के साथ पढ़ते हैं और इस ‘लाम’ को पहले के ताबे करते हैं, अगरचे इसकी शहादत अरब की भाषा से मिलती है लेकिन शाज़ (गैर-मशहूर और न होने के बराबर) है। हसन और ज़ैद. इब्ने अली इन दोनों हर्षों को ■ज़ेर से पढ़ते हैं और ‘लाम’ के ताबे ‘दाल’ को करते हैं। इब्ने जरीर फरमाते हैं कि ‘अल्हम्दु लिल्लाहि’ के मायने यह हैं कि सिर्फ अल्लाह तआला का शुक्र शुक्र है, उसके सिवा कोई इसके लायक नहीं, चाहे वह मख्लूक में से कोई भी हो। इस वजह से कि तमाम नेमतें जिन्हें हम गिन भी नहीं सकते और उस मालिक के सिवा ■ और कोई उनकी तायदाद को नहीं जानता उसी की तरफ से हैं। उसी ने अपनी इताअत करने के तमाम
असबाब हमें अता फरमाये, उसी ने अपने फराईज़ पूरे करने के लिये जिस्मानी तमाम नेमतें हमें अता की। फिर दुनियावी बेशुमार नेमतें और ज़िन्दगी की तमाम ज़रूरतें हमारे किसी हक के बगैर हमें उसने अता कीं, उसकी हमेशगी वाली नेमतें उसके तैयार किये हुए पाकीज़ा मकाम जन्नत में हम किस तरह हासिल कर सकते हैं? यह भी उसने हमें सिखा दिया।
पस हम तो कहते हैं कि अव्वल आख़िर उसी मालिक की पाक जात हर तरह तारीफ और हम्द व शुक्र के लायक है। ‘अल्हम्दु लिल्लाहि’ यह सना (तारीफ व प्रशंसा) का कलिमा है, अल्लाह तआला ने अपनी ■ सना (तारीफ) खुद आप की है और इस तरह गोया मख़लूक को तालीम दी है कि तुम इस तरह मेरी तारीफ करो। बाज़ों ने कहा है कि ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ कहना यह अल्लाह तआला के पाकीज़ा नामों और उसकी ■ बुलन्द व बाला सिफ्तों से उसकी सना (तारीफ) करना है और ‘अश्शुक्रु लिल्लाह’ (शुक्र है अल्लाह का) • कहना यह अल्लाह तआला की नेमतों और उसके एहसान का शुक्रिया अदा करना है, लेकिन यह कौल ठीक नहीं, इसलिये कि अरब की भाषा और मुहावरों को जानने वाले उलेमा का इत्तिफाक है कि शुक्र की जगह • हम्द (तारीफ) का लफ़्ज़ और हम्द की जगह शुक्र का लफ़्ज़ बोलते हैं। जाफरे सादिक और इब्ने अता सूफी – यही फरमाते हैं। हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि. फरमाते हैं कि हर शुक्र करने वाले का कलिमा ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ है। इमाम कुर्तुबी ने इब्ने जरीर के कौल को मोतबर करने के लिये यह दलील भी बयान की है कि अगर • कोई ‘अल्हम्दु लिल्लाह शुक्रन्’ कहे तो जायज़ है। दर असल अल्लामा इब्ने जरीर के इस दावे में कलाम है, • पहले उलेमा में मशहूर है कि हम्द कहते हैं ज़बानी तारीफ बयान करने को, चाहे जिसकी हम्द की जाती हो ■ उसकी लाज़िम सिफ्तों पर हो या मुतअद्दी सिफ्तों पर, शुक्र सिर्फ मुतअद्दी सिफ्तों पर होता है और वह • दिल ज़बान और तमाम अरकान से होता है। अरब शायरों के अश्आर भी इस पर दलील हैं। हाँ इसमें • इख्तिलाफ (मतभेद) है कि हम्द का लफ़्ज़ आम है या शुक्र का, और सही बात यह है कि इसमें दोनों हैं, इस हैसियत से कि जिस पर वाके हो, हम्द का लफ़्ज़ शुक्र के लफ़्ज़ से आम है, इसलिये कि वह लाज़िम और ■ मुतअद्दी दोनों सिफ्तों पर आता है। पाकीज़गी और करम दोनों पर ‘हमिद्तुहू’ (मैंने उसकी तारीफ की) कह सकते हैं, लेकिन इस हैसियत से कि वह सिर्फ ज़बान से ही अदा हो सकता है यह लफ़्ज़ ख़ास है। और ■ शुक्र का लफ़्ज़ आम है क्योंकि वह कौल, फेल और नीयत तीनों पर बोला जाता है और सिर्फ मुतअद्दी सिफ्तों पर बोले जाने के एतिबार से शुक्र का लफ़्ज़ खास है ।
कुदूसियत पर (पाकीज़गी बयान करते हुए)
‘शकरतुहू’ (मैंने उसका शुक्र अदा किया) नहीं कह सकते, अलबत्ता ‘शकरतुहू अला करमिही व एहसानिही
इलय्-य’ (मैं उसका शुक्र अदा करता हूँ उसके उन एहसानात और करम पर जो उसने मुझ पर किये हैं) कह सकते हैं। यह था खुलासा बाद वाले ज़माने के उलेमा के कौल का। वल्लाहु आलम । अबू नस्त्र इस्माईल बिन हम्माद जोहरी कहते हैं कि ‘हम्द’ (तारीफ) मुकाबिल है ‘ज़म’ (बुराई करने) के। यूँ कहते हैं:
حمدت الرجل احمده حمدا ومحمدة فهو حميد ومحمود. कि तारीफ की मैंने उस आदमी की जो कि है ही तारीफ के काबिल। ‘तहमीद’ (तारीफ करने) में ‘हम्द’ (तारीफ) से भी ज़्यादा मुबालगा है। हम्द शुक्र से आम है, शुक्र कहते हैं किसी मोहसिन (एहसान करने वाले) की दी हुई नेमतों पर उसकी तारीफ व शुक्रगुज़ारी करने को।
अरबी ज़बान में ‘शकरतुहू’ और ‘शकरतु लहू’ दोनों तरह कहते हैं, लेकिन लाम के साथ कहना ज़्यादा उम्दा है।
मदह’ का लफ़्ज़ ‘हम्द’ से भी ज़्यादा आम है, इसलिये कि यह ज़िन्दा मुर्दा बल्कि बेजान चीज़ों पर भी (तारीफ करने के लिये) ‘मदह’ का लफ़्ज़ बोल सकते हैं। खाने, मकान और इसी तरह की और दूसरी चीज़ों की ‘मदह’ (तारीफ) की जाती है, एहसान से पहले एहसान के बाद लाज़िम सिफ्तों पर मुतअद्दी सिफ्तों पर भी इसका इतलाक हो सकता है तो इसका आम होना साबित हुआ। वल्लाहु आलम ।
नोटः ऊपर की तहरीर में थोड़ा उलझाव ज़रूर महसूस हो रहा होगा, लेकिन इससे इतना अन्दाज़ा तो होता ही है कि कुरआन पाक के एक-एक लफ़्ज़ की लुगवी और मानवी तहकीक में उलेमा हज़रात ने किस कद्र मेहनत और जिद्दोजेहद से काम लिया है। ‘लाज़िम’ और ‘मुतअद्दी’ लफ़्ज़ बार-बार आये हैं। ‘लाज़िम’ से ऐसी चीज़ और सिफत मुराद ली जाती है जिसका असर मौसूफ की अपनी जात तक हो, या जिसका असर एक ही जात तक रहे दूसरों तक न फैले, और ‘मुतअद्दी’ उस चीज़ या सिफ्त को कहा जाता है जिसका असर दूसरों तक भी पहुँचे। मुहम्मद इमरान कासमी बिज्ञानवी
हम्द’ की तफ्सीर और उलेमा व बुजुर्गों की राय
हज़रत उमर रज़ि. ने एक मर्तबा फरमाया कि ‘सुब्हानल्लाह’ और ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ और बाज़ ■ रिवायतों में है कि ‘अल्लाहु अकबर’ को तो हम जानते हैं, लेकिन यह ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ का क्या मतलब है? हज़रत अली रजि. ने जवाब दिया कि इस कलिमे को अल्लाह तआला ने अपने लिये पसन्द फरमा लिया है। और बाज़ रिवायतों में है कि इसका कहना खुदा को भला लगता है। इब्ने अब्बास रज़ि. फ्रमाते हैं कि यह कलिमा शुक्र का है, इसके जवाब में अल्लाह तआला फरमाता है कि मेरे बन्दे ने मेरा शुक्र किया। पस इस कलिमे में शुक्र के अलावा उसकी नेमतों, हिदायतों, एहसान वगैरह का इकार भी है। कअबे अहबार रज़ि. का कौल है कि यह कलिमा अल्लाह तआला की सना (प्रशंसा) है। ज़हाक रह. कहते हैं कि यह खुदा की चादर है। एक हदीस भी ऐसी है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं कि जब तुमने ‘अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन’ कह लिया तो तुमने अल्लाह का शुक्र अदा कर लिया। अब अल्लाह
तआला तुम्हें बरकत देगा।
अस्वद बिन सरीअ एक मर्तबा हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खिदमत में अज़ करते है कि मन जाते बारी तआला की हम्द (तारीफ) में चन्द अश्आर कहे हैं, इजाज़त हो तो सुना दूँ? फरमाया अल्लाह ■ तआला को अपनी हम्द बहुत पसन्द है। (मुस्नद अहमद व नसाई) तिर्मिज़ी, नसाई और इब्ने माजा में हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- अफज़ल ■ ज़िक्र ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु’ है और अफज़ल दुआ ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ है। इमाम तिर्मिज़ी इस हदीस को ■ हसन गरीब कहते हैं। इब्ने माजा की हदीस में है कि जिस बन्दे को अल्लाह तआला कोई नेमत दे और वह उस पर ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ कहे तो दी हुई नेमत ली हुई से अफज़ल है। फरमाते हैं कि अगर मेरी उम्मत में से किसी को अल्लाह तआला दुनिया दे दे और वह ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ कहे तो यह कुलिमा सारी दुनिया से अफज़ल है। इमाम कुर्तुबी फरमाते हैं- मतलब यह है कि सारी दुनिया दे देना इतनी बड़ी नेमत नहीं जितनी अल्हम्दु लिल्लाह कहने की तौफीक देना है। इसलिये कि दुनिया तो फानी है और इस कलिमे का सवाब बाकी है। जैसा कि कुरआने पाक में हैः
الْمَالُ وَالْبَنُونَ.
الخ.
यानी माल और औलाद दुनिया की ज़ीनत हैं और नेक आमाल हमेशा बाकी रहने वाले सवाब वाले और नेक उम्मीद वाले हैं।
इब्ने माजा में हज़रत इब्ने उमर रज़ि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया एक शख्स ने एक मर्तबा कहाः
يارب لك الحمد كما ينبغى لجلال وجهك وعظيم سلطانك. ‘या रब्बि लकल् हम्दु कमा यम्बगी लि-जलालि वज्हि-क व अज़ीमि सुल्तानि-क’
फरिश्ते घबरा गये कि हम इसका कितना अज्र लिखें। आखिर अल्लाह तआला से उन्होंने अर्ज की कि • तेरे एक बन्दे ने एक ऐसा कलिमा कहा है कि हम नहीं जानते उसे किस तरह लिखें? परवर्दिगार ने बावजूद जानने के उनसे पूछा कि उसने क्या कहा है? उन्होंने बयान किया कि उसने यह कलिमा कहा है। फरमाया ■ तुम यूँ ही इसे लिख लो, मैं आप उसे अपनी मुलाकात के वक़्त इसका अज्र दे दूँगा। इमाम कुर्तुबी उलेमा की एक जमाअत से नकल करते हैं कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु’ से भी ‘अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन’ ■ अफज़ल है, क्योंकि इसमें तौहीद और हम्द दोनों हैं। और दूसरे उलेमा का ख्याल है कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु’ अफज़ल है, इसलिये कि ईमान व कुफ्र में यही फर्क करता है, इसी के कहलवाने के लिये काफिरों से लड़ाईयाँ की जाती हैं जैसा कि सही बुखारी, सही मुस्लिम की हदीस में है। एक और मरफूज़ हदीस में है कि जो कुछ मैंने और मुझसे पहले के तमाम अम्बिया-ए-किराम ने कहा है उनमें सबसे अफज़ल ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु वह्वहू ला शरी-क लहू’ है।
हज़रत जाबिर रज़ि. की एक मरफूअ हदीस पहले गुज़र चुकी है कि ज़िक्र में सबसे अफज़ल ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु’ है और अफज़ल दुआ ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ है। तिर्मिज़ी ने इस हदीस को हसन कहा है। ‘अल्हम्दु’ में ‘अलिफ लाम’ इस्तिगराक का है, यानी हम्द (तारीफ) की तमाम किस्में और जिन्सें सबकी सब सिर्फ अल्लाह तआला ही के लिये साबित हैं, जैसा कि हदीस में है कि बारी तआला तेरे ही लिये तमाम तारीफें हैं और तमाम मुल्क है, तेरे ही हाथ तमाम भलाईयाँ हैं और तमाम काम तेरी ही तरफ लौटते हैं।