إيَّاك نعبد وإياك نستعين सूरह फातिहा आयत 4

إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ

हम तेरी ही इबादत [ 6] करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं। [ 7]

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إيَّاك نعبد وإياك نستعين hindi
सूरह फातिहा ट्रांसलेशन और तफसीर हिन्दी

 

सूरह फातिहा आयत 4 «إيَّاك نعبد وإياك نستعين» तफसीर मौलाना मौदुदी तफ़हीमूल कुरान हिन्दी Surat No. 1 Ayat NO. 4 

{ إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ }

हम तेरी ही इबादत [ 6] करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं। [ 7]

हम तेरी ही इबादत [6] हाशिया-6 इबादत का लफ़्ज़ भी अरबी ज़बान में तीन मानों में इस्तेमाल होता है- (1) पूजा और परस्तिश, (2) इताअत (आज्ञापालन) और फ़रमाँबरदारी (3) बंदगी और ग़ुलामी। इस जगह पर एक ही साथ ये तीनों मानी मुराद हैं। यानी हम तेरे परस्तार (उपासक) भी हैं, फ़रमाँबरदार और बन्दे व ग़ुलाम भी। और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि हम तेरे साथ ये ताल्लुक़ रखते हैं, बल्कि मानी वाक़ई हक़ीक़त ये है कि हमारा ये ताल्लुक़ सिर्फ़ तेरे ही साथ है। इन तीनों मानी में से किसी मानी में भी हमारा कोई दूसरा माबूद (उपास्य) नहीं है।

करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं। [ 7] हाशिया-7 यानी तेरे साथ हमारा ताल्लुक़ सिर्फ़ इबादत का ही नहीं है, बल्कि मदद चाहने और मदद लेने का ताल्लुक़ भी हम तेरे ही साथ रखते हैं। हमें मालूम है कि सारे जहान का रब तू ही है और सारी ताक़तें तेरे ही हाथ में हैं। सारी नेमतों का तू ही अकेला मालिक है। इसलिये हम अपनी ज़रूरतों की तलब में तेरी तरफ़ ही पलटते हैं, तेरे ही आगे हमारा हाथ फैलता है और तेरी मदद ही पर हमारा भरोसा है। इसी वजह से हम अपनी ये दरख़ास्त लेकर तेरी ख़िदमत में हाज़िर हो रहे हैं।

पारा (1) सूरः फातिहा  तफसीर इब्ने कसीर जिल्द (1)

إيَّاك نعبد وإياك نستعين
إيَّاك نعبد وإياك نستعين

«إيَّاك نعبد وإياك نستعين»

हम आप ही की इबादत करते हैं और आप ही से मदद की दरख्वास्त करते हैं। (4)

सातों कारियों और जमहूर ने इसे ‘इय्या-क’ पढ़ा है। अमर बिन फायद ने ‘इया-क’ पढ़ा लेकिन यहकिराअत शाज़ और अस्वीकारीय है। इसलिये कि ‘ड्या’ के मायने सूरज की रोशनी के हैं और बाज़ों ने ‘अय्या-क’ पढ़ा है और बाज़ों ने ‘हय्या-क’ पढ़ा है। अरब शायरों के शे’रों में भी ‘हय्या-क’ है।

‘नस्तीन’ की यही क्रिराअत तमाम की है सिवाय यहया बिन वसाब और आमश के, ये दोनों पहले ■ ‘नून’ को जेर से पढ़ते हैं। कबीला बनू असद रबीआ, बनू तमीम का लुगत (भाषा) इसी तरह पर है। लुगत में ‘इबादत’ कहते हैं ज़िल्लत और पस्ती कों। ‘तरीके माबद’ उस रास्ते को कहते हैं जो ज़लील हो, इसी तरह “बीरे माबद” उस ऊँट को कहते हैं जो ज़लील (पस्त और घटिया) हो और शरीअत में इबादत नाम है मुहब्बत, खुशूञ्ज, खुजूअ और ख़ौफ के मजमूए का। लफ़्ज़ ‘इय्या-क’ को जो मऊल है, पहले लाये और फिर इसी को दोहराया ताकि इसकी अहमियत ज़ाहिर हो जाये। और इबादत और मदद की तलब अल्लाह ■ तआला ही के लिये मख़्सूस हो जाये तो इस जुमले के मायने यह हुए कि हम तेरे सिवा किसी की इबादत • नहीं करते और तेरे सिवा किसी पर भरोसा नहीं करते। कामिल इताअत और पूरे दीन का हासिल सिर्फ यही दो चीज़े हैं। बाज़ बुजुर्गों का फरमान है कि सारे कुरआन का राज़ सूरः फातिहा में है और पूरी सूरत का ■ राज़ इस आयत ‘इय्या-क नबुदु व इय्या-क नस्तीन’ में है। आयत के पहले हिस्से में शिर्क से बेज़ारी का ■ ऐलान है और दूसरे जुमले में अपनी ताकतों और कुव्वतों का इनकार है और अल्लाह तआला की तरफ • अपने तमाम कामों की सुपुर्दगी है। इस मजमून की और भी बहुत सी आयतें कुरआन पाक में मौजूद हैं। जैसे फरमायाः

الخ. فَاعْبُدْهُ وَتَوَكَّلْ عَلَيْهِ. यानी अल्लाह ही की इबादत करो और उसी पर भरोसा करो। तुम्हारा रब तुम्हारे आमाल से गाफिल नहीं। एक जगह फरमायाः

समझ । यानी पूरब व पश्चिम का रब वही है, उसके सिवा कोई माबूद नहीं। तू उसी को अपना कारसाज़

الخ. قُلْ هُوَ الرَّحْمَنُ ..

यही मज़मून इस आयते करीमा में है। इससे पहले की आयतों में तो खिताब न था लेकिन इस आयत ■ में अल्लाह तआला से खिताब किया गया जो बहुत ही बारीकी और मुनासबत रखता है। इसलिये कि जब बन्दे ने अल्लाह तआला की तारीफ व प्रशंसा बयान की तो गोया अल्लाह की नज़दीकी हासिल की और • अल्लाह तआला के हुजूर में पहुँच गया। अब उस मालिक को ख़िताब करके अपनी ज़िल्लत और मिस्कीनी ■ का इज़हार करने लगा और कहने लगा कि खुदाया हम तो तेरे ज़लील गुलाम हैं और अपने तमाम कामों में तेरे मोहताज हैं। इस आयत में इस बात की भी दलील है कि इससे पहले के तमाम जुमलों में ख़बर (किसी ■ न किसी बात की ख़बर देना) थी। अल्लाह तआला ने अपनी बेहतरीन सिफात पर अपनी तारीफ खुद की • थी और बन्दों को अपनी तारीफ अलफाज़ के साथ बयान करने का इरशाद फरमाया था। इसी लिये उस शख़्स की नमाज़ सही नहीं होती जो इस सूरत को पढ़ना जानता हो और फिर न पढ़े। जैसा कि बुखारी व मुस्लिम की हदीस में हज़रत उबादा बिन सामित रज़ि. सेमरवी है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- उस शख्स की नमाज़ को नमाज़ नहीं कहा जा सकता जो सूरः फातिहा अपनी नमाज़ में न पढ़े। सही मुस्लिम शरीफ में हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. से मरवी है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- अल्लाह तआला का फरमान है कि मैंने नमाज़ को अपने और अपने बन्दे के दरमियान आधों-आध बाँट लिया है। इसका आधा हिस्सा मेरा है और आधा हिस्सा मेरे बन्दे के लिए है , और मेरे बन्दे के लिए वह है जो वह तलब करे।

जब बन्दा ‘अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन’ कहता है तो खुदा फरमाता है- मेरे बन्दे ने मेरी तारीफ बयान की। जब है ‘अर्रहमानिर्रहीम’ खुदा फ्रमाता है- मेरे बन्दे ने मेरी तारीफ की। जब वह कहता है कहता ‘मालिकि यौमिद्दीन’ खुदा फरमाता है मेरे बन्दे ने मेरी बुजुर्गी बयान की। जब वह ‘इय्या-क नअबुदु व ■ इय्या-क नस्तीन’ कहता है तो अल्लाह तआला फरमाता है- यह मेरे और मेरे बन्दे के दरमियान है और मेरे ■ बन्दे के लिये वह है जो वह माँगे। फिर सूरत के आख़िर तक पढ़ता है तो अल्लाह तआला फरमाता है- यह ■ मेरे बन्दे के लिये है और मेरा बन्दा जो मुझसे माँगे उसके लिये है।

हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि. फरमाते हैं कि ‘इय्या-क नअबुदु’ के मायने यह हैं कि ऐ हमारे रब! हम • ख़ास तेरी ही तौहीद (एक माबूद होने को) मानते हैं और तुझी से डरते हैं और तेरी ही जात से उम्मीद रखते तेरे सिवा किसी और की न तो हम इबादत करें न डरें न उम्मीद रखें। और ‘इय्या-क नस्तीन’ से मुराद • यह है कि हम तेरी तमाम इताअत पर और अपने तमाम कामों पर तुझ ही से मदद माँगते हैं। कृतादा रह. • फ्रमाते हैं- मतलब यह है कि खुदा तआला का हुक्म है कि तुम सब उसी की ख़ालिस इबादत करो और अपने कामों में उसी से मदद माँगो। ‘इय्या-क नअबुदु’ को पहले लाना इसलिये है कि असल मसूद ■ अल्लाह तआला की इबादत करना ही है, और मदद तलब करना यह इबादत का वसीला और एहतिमाम ■ और उस पर पुख़्तगी है। और यह ज़ाहिर है कि ज़्यादा अहमियत वाली चीज़ को आगे किया जाता है और • उससे कम को उसके बाद लाया जाता है। वल्लाहु आलम ।

अगर यह कहा जाये कि यहाँ जमा (बहुवचन) के सीगे (अलफाज़) को लाने की यानी “हम” कहने की क्या ज़रूरत है? अगर यह जमा के लिये है तो कहने वाला तो एक है और अगर ताज़ीम (सम्मान) के लिये है तो इस मकाम पर यह निहायत नामुनासिब है। क्योंकि यहाँ तो मिस्कीनी और आजिज़ी ज़ाहिर करना ■ मकसूद है। इसका जवाब यह है कि गोया एक बन्दा तमाम बन्दों की तरफ से ख़बर दे रहा है ख़ास तौर पर • जबकि वह जमाअत में खड़ा हो, या इमाम बना हुआ हो। तो गोया वह अपनी और अपने सब मोमिन • भाईयों की तरफ से इक्रार कर रहा है कि वे सब उसके बन्दे हैं और उसी की इबादत के लिये पैदा किये ■ गये हैं, और यह उनकी तरफ से भलाई के लिये आगे बढ़ा हुआ है।

बाज़ हज़रात ने कहा है कि यह ताज़ीम (अदब और सम्मान) के लिये है, गोया कि बन्दा जब इबादत ■ में दाखिल होता है तो उसी को कहा जाता है कि तू शरीफ है और तेरी इज़्ज़त हमारे दरबार में बहुत ज़्यादा ■ है तू अब “इय्या-क नअबुदु व इय्या-क नस्तीन” कह, अपने आपको इज़्ज़त से याद कर। हाँ अगर इबादत से अलग हो तो उस वक़्त “हम” न कह अगरचे हज़ारों लाखों में हो, क्योंकि सबके सब अल्लाह ■ तआला के मोहताज और उसके दरबार में फकीर हैं। बाज़ का कौल है कि ‘इय्या-क नअबुदु’ में जो तवाज़ो और आजिज़ी है वह ‘इय्या-क अबद्ना’ में नहीं, इसलिये कि इसमें अपने नफ़्स की बड़ाई और अपनी इबादत की अहलियत पाई जाती है, हालाँकि कोई बन्दा अल्लाह तआला की पूरी इबादत और जैसी चाहिये वैसी तारीफ व सिफत बयान करने पर कुदरत ही नहीं रखता।

किसी शायर का कौल है कि मुझे उसका गुलाम कहकर ही पुकारो, क्योंकि मेरा सबसे अच्छा नाम यही है। अल्लाह तआला ने अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का नाम ‘अब्द’ यानी गुलाम उन जगहों पर लिया है जहाँ अपनी बड़ी-बड़ी नेमतों का ज़िक्र किया है। जैसे कुरआन नाज़िल करना, नमाज़ में खड़े होना, मेराज कराना वगैरह। फरमान हैः

الْحَمْدُ لِلَّهِ الَّذِي أَنْزَلَ عَلَى عَبْدِهِ الْكِتَبَ ..الخ

सूरह कहफ आयत 1 और फरमाया

وَأَنَّهُ لَمَّا قَامَ عَبْدُ اللَّهِ .. الخ ..

सुर: जिन्न आयत 19) और फरमायाः

. سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَى بِعَبْدِهِ ……. الخ.

(सूरः बनी इस्राईल आयत साथ ही कुरआन पाक ने यह तालीम दी कि ऐ नबी! जिस वक़्त तुम्हारा दिल मुखालिफों के झुठलाने की वजह से तंग और दुखी हो तो तुम मेरी इबादत में मशगूल हो जाओ। फरमान हैः

وَلَقَدْ نَعْلَمُ أَنَّكَ يَضِيقُ ..الخ

यानी हम जानते हैं कि मुखालिफों की बातें तेरा दिल दुखाती हैं तो ऐसे वक़्त अपने रब की तस्बीह ■ और तारीफ बयान कर और सज्दा कर और मौत के वक़्त तक अपने रब की इबादत में लगा रह। इमाम राज़ी रह. ने अपनी तफ्सीर में बाज़ लोगों से नकल किया है कि बन्दगी का मक़ाम रिसालत के मकाम से अफज़ल है। क्योंकि इबादत का ताल्लुक मख्लूक से खालिक की तरफ होता है और रिसालत का ताल्लुक हक से ख़ल्क (मख़्लूक) की तरफ होता है, और इस दलील से भी कि ‘अब्द’ (बन्दे) की इस्लाह (सुधार) के तमाम कामों का ज़िम्मेदार और निगहबान खुद अल्लाह तआला होता है और रसूल अपनी उम्मत की मस्लेहतों का वाली होती है। लेकिन यह कौल गलत है और इसकी ये दोनों दलीलें भी कमज़ोर और ■ बेफायदा हैं। अफसोस कि इमाम राज़ी ने न तो इसको ज़ईफ कहा न इसे रद्द किया। बाज़ सूफियों का कौल है कि इबादत या तो सवाब हासिल करने के लिये होती है या अज़ाब दूर करने के लिये। वे कहते हैं कि यह कोई फायदे की बात नहीं। इसलिये कि उस वक़्त मकसूद खुद अपनी मुराद ■ का हासिल करना ठहरा। उसकी तकलीफ के लिये तैयार होना यह भी ज़ईफ है, आला मर्तबा इबादत का यह है कि इनसान उस मुकद्दस (पवित्र) ज़ात की जो तमाम कामिल सिफ्तों से मौसूफ है, महज़ उस जात के लिये ही इबादत करे और मकसूद कुछ न हो। इसी लिये नमाज़ की नीयत अल्लाह के लिये नमाज़ पढ़ने की होती है, अगर वह सवाब पाने और अज़ाब से बचने के लिये हो तो बातिल है। दूसरा गिरोह इनकी तरदीद करता है और कहता है कि इबादत का अल्लाह तआला के लिये होना कुछ

■ इसके खिलाफ नहीं कि सवाब की तलब और अज़ाब का बचाव मतलूब न हो। उसकी दलील यह है कि

एक आराबी (देहाती) ने हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खिदमत में हाज़िर होकर कहा कि हुजूर!

न तो आप जैसा पढ़ना जानता हूँ न हज़रत मुआज़ जैसा, मैं तो अल्लाह तआला से जन्नत का सवाल करता

■ हूँ और जहन्नम से निजात चाहता हूँ। हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया इसी के करीब-करीब हम भी पढ़ते हैं।

 

 

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