صِرَاطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلَا الضَّالِّينَ
उन लोगों का रास्ता जिनपर तूने इनाम किया जो मातूब [ प्रकोप और ग़ज़ब का शिकार] नहीं हुए, जो भटके हुए नहीं हैं।
पिछली। सूरह फातिहा। अगली
सूरह फातिहा तफसीर तफहिम उल कुरान और तफसीर इब्न कसीर ।
तफहिम उल कुरान सैयद मौदुदी र صراط الذين أنعمت عليهم غير المغضوب عليهم ولا الضالين
हाशिया-9 ये उस सीधे रास्ते की पहचान है जिसका इल्म हम अल्लाह से माँग रहे हैं, यानी वो रास्ता जिसपर हमेशा से तेरे पसंदीदा बन्दे चलते रहे हैं। वो बे-ख़ता रास्ता कि पुराने ज़माने से आज तक जो शख़्स और जो गरोह भी उस पर चला वो तेरे इनामों का हक़दार हुआ और तेरी नेमतों से मालामाल होकर रहा।
हाशिया-10 यानी इनाम पानेवालों से हमारी मुराद वो लोग नहीं हैं जो देखने में जो आरज़ी (वक़्ती) तौर पर तेरी दुनियावी नेमतों से मालामाल तो होते हैं, मगर असल में वो तेरे ग़ज़ब के हक़दार हुआ करते हैं और अपनी कमयाबी और ख़ुशनसीबी की राह भूले हुए होते हैं। इस सल्बी तशरीह (नकरात्मक व्याख्या) से ये बात ख़ुद खुल जाती है कि इनाम से हमारी मुराद हक़ीक़ी और हमेशा रहनेवाले इनाम हैं न कि वो वक़्ती और नुमाइशी इनाम जो पहले भी फ़िरऔनों, नमरूदों और क़ारूनों को मिलते रहे हैं और आज भी हमारी आँखों के सामने बड़े-बड़े ज़ालिमों, बदकिरदारों और गुमराहों को मिले हुए हैं।
सूरह फातिहा तफसीर इब्न कसीर हिन्दी صِرَاطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلَا الضَّالِّينَ
صِرَاطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلَا الضَّالِّينَ
रास्ता उन लोगों का जिन पर आपने इनाम फरमाया है। (6) न रास्ता उन लोगों का पर आपका ग़ज़ब किया गया और न उन लोगों का जो रास्ते से गुम हो गए। (7)

इसका बयान पहले गुज़र चुका है कि बन्दे के इस कौल पर खुदावन्दे करीम फरमाता है- यह मेरे बन्दे के लिये है और मेरे बन्दे के लिये है जो कुछ वह माँगे। यह आयत तफसीर है सिराते मुस्तकीम की। और जिन पर खुदा का इनाम हुआ उनका बयान सूरः निसा में आ रहा है। फरमान हैः
وَمَنْ يُطِعِ اللَّهَ وَالرَّسُولَ فَأُولَئِكَ مَعَ الَّذِينَ أَنْعَمَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ ……. الخ.
यानी खुदा और रसूल के मानने वाले उनके साथ होंगे जिन पर खुदा का इनाम है, जो नबी और सिद्दीक और शहीद और सालेह (नेक) लोग हैं, ये बेहतरीन साथी और अच्छे रफीक हैं। यह अल्लाह का फज़्ल है और खुदा का जानने वाला होना काफी है।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि. फरमाते हैं- मतलब यह है कि ऐ खुदा तू मुझे उन फरिश्तों, नबियों, सिद्दीकों, शहीदों और सालिहीन की राह पर चला जिन पर तूने अपनी इताअत व इबादत की वजह से इनाम नाज़िल फरमाया। यह आयत ठीक इसी तरह की हैः
مَنْ يُطِعِ اللهَ وَالرَّسُولَ فَأُولَئِكَ مَعَ الَّذِينَ أَنْعَمَ اللَّهُ عَلَيْهِمُ. الخ. وَمَنْ
और जो शख़्स अल्लाह और रसूल का कहना मान लेगा तो ऐसे लोग भी उन हज़रात के साथ होंगे जिन पर अल्लाह तआला ने इनाम फरमाया यानी अम्बिया और सिद्दीकीन और शहीद हज़रात और नेक लोग, और यह हज़रात बहुत अच्छे साथी हैं। (सूरः निसा आयत 69)
रबीअ बिन अनस कहते हैं कि इससे मुराद अम्बिया हैं। इब्ने अब्बास रजि. और मुजाहिद रह. फरमाते हैं कि मोमिन हैं। वकीअ कहते हैं कि मुसलमान हैं। अब्दुर्रहमान फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके सहाबा मुराद हैं। इब्ने अब्बास रज़ि. का कौल ज़्यादा जामे और सब मायनों पर आधारित है। वल्लाहु आलम ।
जमहूर की किराअत में ‘गैरि’ की ‘रा’ ज़ेर के साथ है और सिफत है। अल्लामा ज़मख़्शरी कहते हैं कि ‘रा’ के ज़बर के साथ पढ़ा गया है और हाल है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत उमर बिन खत्ताब रज़ि. की क्रिराअत यही है, और इब्ने कसीर से भी रिवा
यत की गयी है।अलैहिम’ में जो ज़मीर है वह इसका जुल-हाल है और “अन्अम्-त” आमिल है। मायने यह हुए कि खुदाया तू हमें सीधा रास्ता दिखा, उन लोगों का रास्ता जिन पर तूने इनाम किया। जो हिदायत और इस्तिकामत (दीन पर जमने) वाले थे और खुदा और रसूल के इताअत-गुज़ार (पैरवी करने वाले), उसके हुक्मों पर अमल करने वाले,उसके मना किये हुए कामों से रुकने वाले थे। उनकी राह से बचा जिन पर गज़ब व गुस्सा किया गया, जिनके इरादे फासिद (खराब) हो गये, हक को जान कर फिर उससे हट गये और सही रास्ते को गुम कर बैठने वाले लोगों के तरीके से भी हमें बचा ले, जो सिरे से इल्म ही नहीं रखते, मारे-मारे फिरते हैं, राह से भटकते हुए हैरान व परेशान हैं, और राहे हक की तरफ रहनुमाई नहीं किये जाते।
ला’ को दोबारा लाकर कलाम की ताकीद करना इसलिये है कि मालूम हो जाये कि यहाँ दो गलत रास्ते हैं, एक यहूद का दूसरा ईसाईयों का। बाज़ नहवी कहते हैं कि ‘गैर’ का लफ़्ज़ यहाँ पर इस्तिस्ना ■ (अलग करने) के लिये है तो यह ‘इस्तिस्ना मुन्क्ते’ हो सकता है। क्योंकि जिन पर इनाम किया गया है। • उनमें से ये अलग किये जाते हैं और ये लोग इनाम वालों में दाखिल ही न थे। लेकिन हमने जो तफ्सीर की ■ है यह बहुत अच्छी है। अरब शायरों के शे’रों में ऐसा पाया जाता है कि वे मौसूफ को हज़फ कर देते हैं ■ (यानी ज़िक्र नहीं करते) और सिर्फ सिफ्त बयान कर दिया करते हैं। इसी तरह इस आयत में भी सिफ्त Π Π बयान है और मौसूफ (जिनकी सिफ्त बयान हुई है) महज़ूफ (पोशीदा) है। “गैरिल-मग़ज़ूबि” (जिन पर ■ गज़ब नहीं किया गया) से मुराद “गैरि सिरातिल-मग़ज़ूबि” (यानी उन रास्तों के अलावा जिन पर ग़ज़ब • किया गया) है। यहाँ सिर्फ मग़ज़ूब को ज़िक्र कर दिया गया ‘सिरात’ को हज़फ कर दिया क्योंकि पहले दो मर्तबा यह लफ़्ज़ आ चुका है, उसी से इस पर दलालत हो रही है। बाज़ कहते हैं कि ‘व लज़्ज़ॉल्लीन’ में ‘ला’ ज़ायद है और उनके नज़दीक कलाम की तकदीर इस तरह हैः
Π
غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَالضَّالِّينَ.
और इसकी शहादत (नज़ीर) अरब शायरों के शे’रों से भी मिलती है, लेकिन सही बात वही है जो हम पहले लिख चुके। हज़रत उमर बिन खत्ताब रज़ि. सेः
غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَغَيْرِ الضَّالِّينَ.
पढ़ना सही सनद से मरवी है और इसी तरह हज़रत उबई बिन कअब रज़ि. से भी रिवायत है, और यह महमूल है इस पर कि उन बुजुर्गों से यह बतौर तफ्सीर सादिर हुआ, तो हमारे कौल की ताईद होती है कि ‘ला’ नफी की ताकीद के लिये ही लाया गया है ताकि यह वहम ही न हो कि यह ‘अन्अम्-त अलैहिम’ पर अत्फ (जोड़ रखता) है, और इसलिये भी कि दोनों राहों का फर्क मालूम हो जाये ताकि हर शख़्स इन दोनों से बचता रहे। ईमान वालों का तो तरीका यह है कि हक का इल्म भी हो और हक पर अमल भी हो। यहूदियों के यहाँ अमल नहीं और ईसाईयों के यहाँ इल्म नहीं। इसी लिये यहूदियों पर ग़ज़ब हुआ और • ईसाईयों को गुमराही मिली। इसलिये कि बावजूद इल्म के अमल को छोड़ना सबब है ग़ज़ब का, और ईसाई लोग अगरचे एक चीज़ का इरादा तो करते हैं लेकिन उसके सही रास्ते को नहीं पा सकते, इसलिये कि उनका तरीका-ए-कार गलत है, वे हक की पैरवी से हटे हुए हैं। यूँ तो ग़ज़ब और गुमराही इन दोनों ■ जमाअतों के हिस्से में है लेकिन यहूदी ग़ज़ब के हिस्से में ज़्यादा आगे हैं जैसा कि एक दूसरी जगह कुरआने करीम में है: مَنْ لَّعَنَهُ اللَّهُ وَغَضِبَ عَلَيْهِ. वह उन लोगों का तरीका है जिनको अल्लाह तआला ने दूर कर दिया हो और उन पर ग़ज़ब फरमाया हो। (सूरः मायदा आयत 60) और ईसाई गुमराही में बढ़े हुए हैं अल्लाह का फरमान हैः
قَدْ ضَلُّوا مِنْ قَبْلُ وَأَضَلُّوا كَثِيرًا وَضَلُّوا عَنْ . سَوَاءِ السَّبِيلِ. गुमराह कर भी चुके हैं और सीधी राह से भटके हुए हैं। यानी ये पहले ही से गुमराह हैं और बहुतों को गुमरा इसकी ताईद में बहुत सी हदीसें व रिवायतें पेश की
जा सकती हैं।मुस्नद अहमद में है, हज़रत अदी बिन हातिम रज़ि. ने फरमाया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लश्कर ने मेरी फूफी और चन्द लोगों को गिरफ्तार करके हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ख़िदमत में पेश किया तो मेरी फूफी ने कहा- मेरी खबरगीरी करने वाला दूर है और मैं उम्र-रसीदा बुढ़िया हूँ। जो किसी खिदमत के लायक नहीं, आप मुझ पर एहसान कीजिए और मुझे रिहाई दीजिए, अल्लाह तआला आप पर भी एहसान करेगा। हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मालूम किया कि तेरी ख़बर लेने वाला कौन है? उसने कहा अदी बिन हातिम। आपने फरमाया वही जो खुदा और रसूल से भागता फिरता है? फिर आपने उसे आज़ाद कर दिया। जब लौटकर आप आये तो आपके साथ एक शख़्स थे और गालिबन् वह • हज़रत अली रज़ि. थे। आपने फ्रमाया लो इनसे सवारी माँग लो। मेरी फूफी ने उनसे दरख्वास्त की जो ■ मन्जूर हुई और सवारी मिल गयी। वह यहाँ से आज़ाद होकर मेरे पास आयीं और कहने लगीं कि मुहम्मद ■ (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सखावत ने तो तेरे बाप हातिम की सखावत (देने-दिलाने) को भी पीछे ■ छोड़ दिया। आपके पास जो आता है वह खाली हाथ वापस नहीं जाता। यह सुनकर मैं भी हुजूर सल्लल्लाहु ■ अलैहि व सल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुआ, मैंने देखा कि छोटे बच्चे और बूढ़ी औरतें भी आपकी खिदमत • में आती जाती हैं और आप उनसे भी बेतकल्लुफी के साथ गुफ्तगू करते हैं। इस बात ने मुझे यकीन दिलाया ■ कि आप कैसर व किसरा (रोम व ईरान के बादशाहों) की तरह बादशाही और दबदबे व पद के तलब करने ■ वाले नहीं। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे देखकर फरमाया- अदी! ‘ला-इला-ह इल्लल्लाहु’ कहने से क्यों भागते हो? क्या खुदा के सिवा और कोई इबादत के लायक है? ‘अल्लाहु अकबर’ कहने से क्यों मुँह मोड़ते हो? क्या अल्लाह तआला से भी बड़ा कोई है? (मुझ पर इन कलिमात ने और आपकी सादगी और बेतकल्लुफी ने ऐसा असर किया कि) मैं फौरन कलिमा पढ़कर मुसलमान हो गया जिससे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बहुत खुश हुए और फरमाने लगे ‘मगज़ूब अलैहिम’ से मुराद यहूद हैं और ‘ज़ॉल्लीन’ से
मुराद ईसाई हैं। एक और हदीस में है कि हज़रत अदी रज़ि. के सवाल पर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह ■ तफ्सीर इरशाद फ्रमाई थी। इस हदीस की बहुत सी सनदें हैं और मुख्तलिफ अलफाज़ से मरवी है। बनू कैनुकाअ के एक शख्स ने वादी-ए-कुरा में हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से यही सवाल किया, आपने ■ जवाब में यही फरमाया। बाज़ रिवायतों में इनका नाम अब्दुल्लाह बिन अमर है। वल्लाहु आलम।
इब्ने मर्दूया में अबूज़र रज़ि. से भी यही रिवायत है, हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास, हज़रत इब्ने मसऊद • रजि. और बहुत से सहाबियों से भी यह तफ्सीर मन्कूल है। रबीअ बिन अनस, अब्दुर्रहमान बिन जैद बिन • असलम रह. वगैरह भी यही फरमाते हैं। बल्कि इब्ने अबी हातिम तो फरमाते हैं कि मुफस्सिरीन में इस बारे • में इख्तिलाफ (मतभेद) ही नहीं। इन इमामों की इस तफ्सीर की दलील एक तो वह जो पहले गुज़री। दूसरी सूरः ब-करह की यह आयत जिसमें बनी इस्राईल को खिताब करके कहा गया हैः
بِئْسَ مَا اشْتَرَوْا بِه…الخ
मायदा (सूरः ब-करह आयत90 की यह आयतः आयत में है कि उन पर ग़ज़ब पर ग़ज़ब नाज़िल हुआ। और सुर:
قُلْ هَلْ انَبِّئُكُمْ بَشَرٌ ….الخ (सूरः मायदा आयत 60) में भी है कि उन पर अल्लाह का ग़ज़ब नाज़िल हुआ। एक और जगह
अल्लाह का फरमान हैः
الخ. لُعِنَ الَّذِينَ كَفَرُوا … यानी बनी इस्राईल में से जिन लोगों ने कुफ्र किया उन पर लानत की गयी। दाऊद अलैहिस्सलाम और ईसा बिन मरियम अलैहिस्सलाम की ज़बानी यह उनकी नाफरमानी और हद से गुज़र जाने की वजह से है।
■ ये लोग किसी बुराई के काम से आपस में रोक-टोक नहीं करते थे, यकीनन उनके काम बहुत बुरे थे और तारीख (इतिहास) की किताबों में है कि जैद बिन अभर बिन नुफैल जबकि सही दीन की तलाश में अपने साथियों समेत निकले और मुल्क शाम में आये तो उनसे यहूदियों ने कहा कि आप हमारे दीन में दाखिल नहीं हो सकते जब तक अल्लाह के ग़ज़ब का एक हिस्सा न लें। उन्होंने जवाब दिया कि उसी से बचने के लिये तो दीने हक की तलाश में निकले हैं, फिर उसे कैसे कबूल कर लें? ईसाईयों से मिले, उन्होंने कहा जब ■ तक अल्लाह तआला की नाराज़गी का हिस्सा न लें तब तक आप हमारे दीन में नहीं आ सकते। इन्होंने कहा हम यह भी नहीं कर सकते। चुनाँचे वह फितरत पर ही रहे, बुतों की इबादत और कौम का दीन छोड़ • दिया, लेकिन यहूदियत या ईसाईयत इख़्तियार न की। अलबत्ता ज़ैद के साथियों ने ईसाई मज़हब कुबूल कर लिया,इसलिये कि यहूदियों के मज़हब से यह मिलता-जुलता था। उन्हीं में हज़रत वरका बिन नोफल थे। उन्हें नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नुबुव्वत का ज़माना मिला और अल्लाह की हिदायत ने उनकी रहबरी की और यह हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लाये और जो ‘वही’ उस वक़्त तक ■ उतरी थी उसकी तस्दीक की।
मसलाः ‘जॉद’ और ‘ज़ोय’ की किराअत में बहुत बारीक फर्क है और हर एक के बस का नहीं, इसलिये उलेमा-ए-किराम का सही मज़हब यह है कि यह फर्क माफ है। ‘ज़ॉद’ का सही मज (निकलने की ■ जगह) तो यह है कि ज़बान का शुरू का किनारा और उसके पास की डाढ़ें। और ‘ज़ोय’ का मज ज़बान का एक तरफ (किनारा) और सामने वाले ऊपर के दो दाँत के किनारे। पस उस शख्स को जिसे इन दोनों में • तमीज़ (फर्क) करनी मुश्किल मालूम हो उसे माफ है कि ‘ज़ॉद’ और ‘ज़ोय’ की तरह पढ़ ले। एक हदीस में है कि ‘ज़ॉद’ को सबसे ज़्यादा सही पढ़ने वाला मैं हूँ, लेकिन यह हदीस बिल्कुल बेअसल और ज़ईफ है।
फस्लः यह मुबारक सूरत बहुत ही कारामद मज़ामीन का मजमूआ है। इन सात आयतों में अल्लाह ■ तआला की तारीफ, उसकी बुजुर्गी, उसकी सना व सिफ्त, उसके पाकीज़ा नामों और उसकी बुलन्द व बाला सिफ्तों का बयान है। साथ ही कियामत के दिन का ज़िक्र है और बन्दों को इरशाद है कि वे उस मालिक से सवाल करें, उसकी तरफ आह व फरियाद करें, अपनी मिस्कीनी और बेकसी का इक्रार करें, उसकी इबादत खुलूस के साथ करें, उसकी एक और तन्हा माबूद होने का इकरार करें और उसे शरीक व नज़ीर और मिस्ल से पाक और बरतर जानें। ‘सिराते मुस्तकीम’ की और उस पर साबित-कदमी (जमे रहने) की उससे तलब करें और यही हिदायत उन्हें कियामत वाले दिन पुलसिरात से भी पार उतारेगी और नबियों, सिद्दीक़ों, शहीदों और सालिहों (नेक लोगों) के पड़ोस में जन्नतुल-फिरदौस में जगह दिलवायेगी। साथ ही इस
सूरत में नेक आमाल की तरगीब (तवज्जोह और प्रेरणा) है ताकि कियामत के दिन नेक लोगों का साथ
■ मिले, और बातिल (गैर-हक) राहों पर चलने से डरावा है, ताकि कियामत के दिन भी उनकी जमाअतों से दूरी हो। ये बातिल-परस्त यहूद ईसाई हैं। इस बारीक नुक्ते पर भी गौर कीजिए कि इनाम की निस्बत तो अल्लाह तआला की तरफ की गयी और ‘अन्अम्-त’ कहा गया और ‘ग़ज़ब’ की निस्बत नहीं की गयी। यहाँ फाज़िल हज़फ कर दिया (यानी ज़िक्र न किया) और ‘मग़ज़ूब अलैहिम’ (जिन पर ग़ज़ब किया गया) कहा गया (इसका जिक्र नहीं कि ग़ज़ब करने वाला कौन है)। इसमें परवर्दिगारे आलम की जानिब में अदब से काम लिया गया है। दर असल हकीकी फाज़िल (किसी काम का वास्तव में करने वाला और वजूद बख्शने वाला) अल्लाह तआला ही है, जैसा कि एक दूसरी जगह है- ‘गु-ज़बल्लाहु अलैहिम’ (उन पर अल्लाह नाराज़ ■हुआ और उसने अपना ग़ज़ब किया) और इसी तरह गुमराही की निस्बत भी उनकी तरफ की गयी जो गुमराह हैं, हालाँकि एक दूसरी जगह हैः
مَنْ يُهِدِ اللَّهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِ وَمَنْ يُضْلِلِ اللَّهُ …… الخ. यानी खुदा जिसे राह दिखा दे वह राह पाने वाला है और जिसे वह गुमराह कर दे उसका वली और
मुर्शिद (सही राह दिखाने वाला) कोई नहीं। एक और जगह फरमायाः مَنْ يُضْلِلِ اللَّهُ فَلَا هَادِيَ لَهُ ……. الخ. यानी जिसे अल्लाह गुमराह कर दे उसका हादी (हिदायत देने वाला) कोई नहीं, वे तो अपनी सरकशी में
बहके रहते हैं। इसी तरह और भी बहुत सी आयतें हैं जिनसे साफ साबित होता है कि राह दिखाने वाला और गुमराह करने वाला सिर्फ अल्लाह सुब्हानहू व तआला ही है। कद्रिया फिर्का जो इधर-उधर की मुतशाबा आयतों को ■ दलील बनाकर कहता है कि बन्दे खुद मुख्तार हैं, वे खुद पसन्द करते हैं और खुद करते हैं, यह गलत है, स्पष्ट और साफ-साफ आयतें उनकी तरदीद में मौजूद हैं। लेकिन बातिल-परस्त (गैर-हक वाले) फ़िर्को का यही कायदा है कि स्पष्ट और वाज़ेह चीज़ों को छोड़कर मुतशाबा के पीछे लगा करते हैं। सही हदीस में है कि जब तुम उन लोगों को देखो जो मुतशाबा (मुश्किल और जिनके मायने स्पष्ट न हों) आयतों के पीछे लगते हैं तो समझ लो कि उन्हीं लोगों का अल्लाह तआला ने नाम लिया है, तुम उनको छोड़ दो। हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इशारा इस फरमान में इस आयते मुबारक की तरफ हैः فَأَمَّا الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ زَيْعٌ ..
.الخ. यानी जिन लोगों के दिलों में कजी (खराबी और टेढ़) है वे मुतशाबा के पीछे लगते हैं, फितनों और तावील (मायनों में उलट-फेर) को ढूँढने के लिये। पस ‘अल्हम्दु लिल्लाह’ बिअतियों के लिये कुरआने पाक में सही दलील कोई नहीं।कुरआने करीम तो हक व बातिल, हिदायत व गुमराही में फर्क करने के लिये आया है, इसमें तनाकुज़ (मज़मून में टकराव) और इख्तिलाफ नहीं। यह तो हिक्मत वाले और काबिले तारीफ ज़ात का नाज़िल किया हुआ है।
फस्लः सूरः फातिहा को खत्म करके ‘आमीन’ कहना मुस्तहब (अच्छा और. पसन्दीदा) है। ‘आमीन’ ‘यासीन’ की तरह है, और ‘अमीन’ भी कहा गया है और इसके मायने यह हैं कि ऐ अल्लाह तू कबूल फरमा। ‘आमीन’ कहने के मुस्तहब होने की दलील वह हदीस है जो मुस्नद अहमद, अबू दाऊद औरतिर्मिज़ी में वाईल बिन हजर रजि. से मरवी है। वह कहते हैं कि मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सुना कि आप “गैरिल-मराजूबि अलैहिम व लज़्ज़ॉल्लीन” कहकर ‘आमीन’ कहते थे, और लम्बी आवाज़ करते थे (यानी इसको खींचकर कहते थे)। अबू दाऊद में है कि आवाज़ बुलन्द करते थे, इमाम तिर्मिज़ी इस ■ हदीस को हसन कहते हैं। हज़रत अली, हज़रत इब्ने मसऊद, हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हुम वगैरह से • रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ‘आमीन’ पहली सफ वाले लोग जो आपके करीब होते सुन लेते। अबू दाऊद और इब्ने माजा में यह हदीस है। इब्ने माजा में यह भी है कि ‘आमीन’ की ■ आवाज़ से मस्जिद गूंज उठती थी। दारे कुतनी में भी यह हदीस है और दारे कुतनी इसे हसन बताते हैं। हज़रत बिलाल रज़ि. से रिवायत है कि वह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहते थे कि मुझसे पहले ‘आमीन’ न कहा कीजिए। (अबू दाऊद)
हसन बसरी और जाफरे सादिक रह. से आमीन कहना मरवी है जैसा कि ‘आम्मीनल-बैतल् हरा-म’ कुरआन में है। हमारे साथी वगैरह कहते हैं कि जो नमाज़ में न हो उसे भी ‘आमीन’ कहना चाहिये। हाँ जो ■ नमाज़ में हो उस पर ताकीद ज़्यादा है। नमाज़ी चाहे अकेला हो चाहे मुक़्तदी हो, चाहे इमाम हो हर हालत में ‘आमीन’ कहे। सहीहैन (बुखारी व मुस्लिम) में हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- जब इमाम ‘आमीन’ कहे तुम भी ‘आमीन’ कहो, जिसकी ‘आमीन’ फरिश्तों की ‘आमीन’ से मिल जाये उसके तमाम पिछले गुनाह माफ हो जाते हैं। मुस्लिम शरीफ में है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- जब तुममें से कोई अपनी नमाज़ में ‘आमीन’ कहता है और फरिश्ते आसमान से आमीन कहते हैं और एक की आमीन दूसरे की आमीन से मुवाफ्कृत कर जाती है तो उसके तमाम पिछले गुनाह माफ हो जाते हैं। मतलब यह है कि उसकी आमीन का और फरिश्तों की आमीन का वक़्त एक ही हो जाये, या मुवाफक्त से मुराद कबूलियत में मुवाफिक होना है, या इखलास (नेक-नीयती और खालिस अल्लाह के लिये होने) में। सही मुस्लिम में हज़रत अबू मूसा अश्ञ्जरी रज़ि. से मरफूअन
रिवायत है कि जब इमाम “व लज़्ज़ॉल्लीन” कहे तुम आमीन कहो, खुदा कबूल फरमायेगा। हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि. ने हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मालूम किया कि आमीन के क्या मायने हैं? आपने फरमाया “ऐ अल्लाह तू कर”। जोहरी कहते हैं कि इसके मायने “इसी तरह हो” हैं। ■ तिर्मिज़ी कहते हैं कि इसके मायने हैं कि हमारी उम्मीदों को न तोड़, अक्सर उलेमा फरमाते हैं कि इसके मायने “ऐ अल्लाह तू हमारी दुआ को कबूल फरमा” के हैं। मुजाहिद, जाफ्रे सादिक, हिलाल बिन सय्याफ् रह. फरमाते हैं कि आमीन अल्लाह के नामों में से एक नाम है। इब्ने अब्बास रज़ि. से मरफूअन भी यह • मरवी है, लेकिन सही नहीं। इमाम मालिक के साथियों का मज़हब है कि इमाम आमीन न कहे, मुक़्तदी आमीन कहें, क्योंकि मुवत्ता इमाम मालिक की हदीस में है कि जब इमाम “व लज़्ज़ॉल्लीन” कहे तो तुम आमीन कहो। इसी तरह उनकी दलील की ताईद में सही मुस्लिम वाली हज़रत अबू मूसा अश्ञ्जरी रज़ि. की यह रिवायत भी आती है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- जब इमाम “व लज़्ज़ॉल्लीन” कहे तो तुम आमीन कहो, लेकिन बुखारी व मुस्लिम की हदीस पहले बयान हो चुकी कि जब इमाम आमीन कहे तो तुम भी आमीन कहो और यह भी हदीस में है कि हुजूरे पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम “व
लज़्ज़ॉल्लीन” पढ़कर आमीन कहते थे।
जहरी नमाज़ों (जिनमें किराअत आवाज़ से की जाती है) में मुक्तदी ऊँची आवाज़ से आमीन कहे या न
कहे इसमें हमारे साथियों का इख्तिलाफ (मतभेद) है जिसका खुलासा यह है कि अगर इमाम आमीन कहनीभूल गया हो तो मुक़्तदी बुलन्द आवाज़ से आमीन कहें। अगर इमाम ने खुद ऊँची आवाज़ से आमीन कही ■हो तो नया कौल यह है कि मुक़्तदी बुलन्द आवाज़ से न कहें। इमाम अबू हनीफा रह. का यही मज़हब है।
■ और एक रिवायत में इमाम मालिक से भी मरवी है इसलिये कि नमाज़ और अज़कार की तरह यह भी एक ■ ज़िक्र है, तो न वे बुलन्द आवाज़ से पढ़े जाते हैं न यह बुलन्द आवाज़ से पढ़ा जाये। लेकिन पहला कौल • यह है कि आमीन बुलन्द आवाज़ से कही जाये। हज़रत इमाम अहमद बिन हंबल रह. का भी यही मज़हब है
1 ■ और हज़रत इमाम मालिक रह. का भी दूसरी रिवायत के एतिबार से यही मज़हब है, और इसकी दलील वही
■ हदीस है जो पहले बयान हो चुकी कि आमीन की आवाज़ गूंज उठती थी। हमारे यहाँ पर एक तीसरा कौल
• भी है कि अगर मस्जिद छोटी हो तो मुक्तदी बुलन्द आवाज़ से आमीन न कहें इसलिये कि वे इमाम की • किराअत सुनते हैं और अगर बड़ी हो तो बुलन्द आवाज़ से आमीन कहें ताकि मस्जिद के कोने-कोने में
• आमीन पहुँच जाये। वल्लाहु आलम। मुस्नद अहमद में हज़रत आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व
सल्लम के पास यहूदियों का ज़िक्र हुआ तो आपने फरमाया कि हमारी तीन चीज़ों पर यहूदियों को इतना बड़ा हसद (जलन) है कि किसी और चीज़ पर नहीं। एक तो जुमा, कि खुदा ने हमें इसकी हिदायत की और ये बहक गये। दूसरे किब्ला, तीसरे हमारा इमाम के पीछे आमीन कहना। इब्ने माजा की हदीस में यूँ है कि ■ यहूदियों को सलाम पर और आमीन पर जितनी चिड़ है उतनी किसी और चीज़ पर नहीं, और हज़रत • अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि. की रिवायत है कि हुजूर अलैहिस्सलाम ने फरमाया तुम्हारा जिस कद्र हसद ■ यहूदी आमीन पर करते हैं इस कद्र हसद और किसी बात पर नहीं करते, तुम भी आमीन खूब ज़्यादा कहा ■ करो। इसकी सनद में तल्हा बिन अमर रावी ज़ईफ हैं। इब्ने मर्दूया में हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. की रिवायत से नकल किया गया है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- आमीन अल्लाह तआला की मोहर है अपने मोमिन बन्दों पर। हज़रत अनस रजि. वाली हदीस में है कि नमाज़ में आमीन कहनी और दुआ पर ■ आमीन कहनी अल्लाह तआला की तरफ से मुझे अता की गयी है, जो मुझसे पहले किसी को नहीं दी गयी। हाँ इतना है कि मूसा अलैहिस्सलाम की खास दुआ पर हज़रत हारून अलैहिस्सलाम आमीन कहते थे। तुम अपनी दुआओं को आमीन पर खत्म किया करो। अल्लाह तआला उन्हें तुम्हारे हक में कबूल फरमाया करेगा। इस हदीस को सामने रखकर कुरआने करीम के इन अलफाज़ को देखिये जिनमें हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की दुआ हैः
رَبَّنَا إِنَّكَ آتَيْتَ فِرْعَوْنَ وَمَلَا ……… الخ
यानी खुदाया! तूने फिरऔन और उसके सरदारों को दुनिया की ज़ीनत और माल, दुनिया की ज़िन्दगानी
में अता फरमाया है, जिससे वे तेरी राह से दूसरों को बहका रहे हैं। खुदाया उनके माल बरबाद और उनके
दिल सख़्त कर, ये ईमान न लायें जब तक कि दर्दनाक अज़ाब न देख लें।हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की इस दुआ की कबूलियत का ऐलान इन अलफाज़ में होता है:
قَدْ أُجِيبَتْ دَعْوَتُكُمَا …الخ
यानी तुम दोनों की दुआ कबूल की गयी। तुम मज़बूत रहो और बेअमलों की राह न जाओ। दुआ सिर्फ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम करते थे और हज़रत हारून अलैहिस्सलाम सिर्फ आमीन कहते थे, लेकिन कुरआन ने दुआ की निस्बत दोनों की तरफ की। इससे बाज़ लोगों ने दलील पकड़ी है कि जो शख्सकिसी बुआ पर आमीन कहे उसने गोया खुद वह दुआ की। अब इस इस्तिदलाल (दलील पकड़ने) को सामने
रखकर फिर वे कियास करते हैं कि मुक्तदी क्रिाअत न करे, इसलिये कि इसका सूरः फातिहा पर आमीन कहना पड़ने के जैसा ही है और इस हदीस को भी दलील में लाते हैं कि जिसका इमाम हो तो इमाम की ■ किराअत उसकी क्रिाअत है। (मुस्नद अहमद) हज़रत बिलाल रज़ि. कहा करते थे कि हुजूर! आमीन में • मुझसे आगे न बढ़ जाया कीजिए। इस खींचा-तानी से मुक़्तदी पर जहरी नमाज़ों में अल्हम्दु का न पढ़ना साबित करना चाहते हैं। वल्लाहु आलम।
(यह याद रहे कि इसकी मुफस्सल बहस पहले गुज़र चुकी है) हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया जब इमाम “गैरिल-मग़ज़ूबि अलैहिम व लज़्ज़ॉल्लीन” • कहकर आमीन कहता है और आसमान वालों की आमीन ज़मीन वालों की आमीन से मिल जाती है तो ■ अल्लाह तआला बन्दे के तमाम पिछले गुनाह माफ फ्रमा देता है। आमीन न कहने की मिसाल ऐसी है जैसे एक शख्स ने एक कौम के साथ मिलकर ग़ज़वा किया (यानी अल्लाह के रास्ते में जंग लड़ी), ग़ालिब आये, ■ माले गनीमत जमा किया, जब कुर्ज़ा डालकर हिस्से लेने लगे तो उस शख़्स के नाम का कुर्ज़ा निकला ही • नहीं और कोई हिस्सा न मिला। उसने कहा यह क्यों? जवाब मिला कि तेरे आमीन न कहने की वजह से।