الم
अलिफ लाम् मीम्’
Tafheem ul Quran Hindi Surah Baqarah Alif lam meem
Surat No. 2 Ayat NO. 1
हाशिया-1 ये हुरूफ़े-मुक़त्तआत (विलग अक्षर) क़ुरआन मजीद की कुछ सूरतों के शुरू में पाए जाते हैं। जिस ज़माने में क़ुरआन उतरा है, उस ज़माने में बात कहने और बयान करने के जो अन्दाज़ और तरीक़े राइज थे उनमें इस तरह के अलग-अलग हरफ़ों का इस्तेमाल आम तौर पर राइज था। तक़रीर करनेवाले और शायर दोनों बयान के इस अन्दाज़ (शैली) से काम लेते थे। चुनांचे अब भी इस्लाम से पहले के लिट्रेचर के जो नमूने महफ़ूज़ हैं उनमें इसकी मिसालें हमें मिलती हैं। इस आम इस्तेमाल की वजह से ये मुक़त्तआत कोई पहेली न थे जिसको बोलनेवाले के सिवा कोई न समझता हो, बल्कि सुननेवाले आम तौर से जानते थे कि उनसे मुराद किया है। यही वजह है कि क़ुरआन के ख़िलाफ़ नबी (सल्ल०) के वक़्त के इस्लाम के मुख़ालिफ़ों में से किसी ने भी ये सवाल कभी नहीं किया कि ये बेमानी हरफ़ कैसे हैं, जो तुम क़ुरआन की कुछ सूरतों की शुरुआत में बोलते हो। और यही वजह है कि सहाबा किराम (रज़ि०) से भी ऐसी कोई रिवायत नहीं मिलती कि उन्होंने नबी (सल्ल०) से इनके मानी पूछे हों। बाद में ये अन्दाज़ अरबी ज़बान में ख़त्म होता चला गया और इस वजह से क़ुरआन के मुफ़स्सिरों के लिये इनका मतलब समझना मुश्किल हो गया। लेकिन ये ज़ाहिर है कि न तो इन हुरूफ़ का मतलब समझने पर क़ुरआन से हिदायत हासिल करने का दारोमदार है और न यही बात है कि अगर कोई आदमी इनके मानी न जानेगा तो उसके सीधा रास्ता पाने में कोई कमी रह जाएगी। इसलिये एक आम आदमी के लिये कुछ ज़रूरी नहीं है कि वो इनकी खोज में पड़े।
सूरह बकरह तफसीर इब्न कसीर आयत 1
पारा (1) सूरः बकरह
अलिफ्-लाम-मीम। (1)
الم
अलिफ लाम् मीम्’ जैसे हुरूफे-मुकत्तआ जो सूरतों के शुरू में आये हैं इनकी तफसीर में मुफस्सिरीन का इख़्तिलाफ (मतभेद) है। बाज़ कहते हैं कि इनके मायने सिर्फ अल्लाह तआला ही को मालूम हैं, किसी और को मालूम नहीं, इसलिये वे इन हुरूफ की कोई तफसीर नहीं करते। इमाम कुर्तुबी ने हज़रत अबू बक्र, हज़रत उमर, हज़रत उस्मान, हज़रत अली, हज़रत इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हुम से यही नकल किया है। ■ आमिर शअबी, सुफियान सौरी, रबीअ बिन खैसम रह. भी यही कहते हैं। अबू हातिम बिन हिब्बान भी ■ इसको पसन्द करते हैं। और बाज़ लोग इन हुरूफ की तफसीर भी करते हैं, लेकिन उनकी तफसीर में बहुत कुछ इख्तिलाफ (मतभेद और विरोधाभास) है। अब्दुर्रहमान बिन जैद बिन असलम रह. फरमाते हैं- ये सूरतों ■ के नाम हैं। अल्लामा अबुल-कासिम महमूद बिन उमर ज़मख़्शरी रह. अपनी तफ्सीर में लिखते हैं कि अक्सर ■ लोगों का इसी पर इत्तिफाक है। सीबवैह ने भी यही कहा है और इसकी दलील सहीहैन की वह हदीस है। जिसमें है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जुमे के दिन सुबह की नमाज़ में ‘सूरः अलिफ्-लाम-मीम सज्दा’ और ‘सूरः इनसान’ (दहर) पढ़ते थे। हज़रत मुजाहिद रह. फरमाते हैं कि ‘अलिफ़-लाम-मीम’ ‘हा-मीम’ ‘अलिफ़-लाम-मीम-सॉद’ और ‘सॉद’ ये सब सूरतों की इब्तिदा (शुरूआती हिस्सा) है, जिनसे ये सूरतें शुरू होती हैं, उन्हीं से ये भी मन्कूल है कि ‘अलिफ़-लाम-मीम’ कुरआन के नामों में से एक नाम है। हज़रत कृतादा और हज़रत ज़ैद बिन असलम का भी यही कौल है और शायद इस कौल का मतलब भी वहीं है जो हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने ज़ैद बिन असलम रह. फरमाते हैं कि ये सूरतों के नाम हैं। इसलिये कि हर सूरत को कुरआन कह सकते हैं और यह नहीं हो सकता कि सारे कुरआन का नाम ■ “अलिफ़-लाम-मीम-सॉद” हो। क्योंकि जब कोई शख्स कहे कि मैंने सूरः “अलिफ़-लाम-मीम-सॉद” पढ़ी तो ज़ाहिर में यही समझा जाता है कि उसने सूरः आराफ पढ़ी, न कि पूरा कुरआन। वल्लाहु आलम।
बाज़ मुफस्सिरीन कहते हैं कि ये अल्लाह तआला के नाम हैं। हज़रत शअबी, सालिम बिन अब्दुल्लाह, इस्माईल बिन अब्दुर्रहमान, सुद्दी, कबीर यही कहते हैं। हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि. से रिवायत है कि ‘अलिफ़-• लाम-मीम’ अल्लाह तआला का बड़ा नाम है। एक और रिवायत में है कि “हा-मीम” “तों-सीन” और “अलिफ़-लाम-मीम” ये सब अल्लाह तआला के बड़े नाम हैं। हज़रत अली और हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि.
दोनों से यही मरवी है। एक और रिवायत में है कि यह अल्लाह की कसम है और उसका नाम भी है। हज़रत इक्रिमा रह. फरमाते हैं- यह कसम है। इब्ने अब्बास रज़ि. से यह भी मरवी है कि इसके मायने ‘अनल्लाहु आलमु’ हैं, यानी मैं हूँ अल्लाह ज़्यादा जानने वाला। हज़रत सईद बिन जुबैर से भी यह मरवी है। • हज़रत इब्ने अब्बास, हज़रत इब्ने मसऊद और बाज़ दूसरे सहाबा से रिवायत है कि अल्लाह तआला के नामों के अलग-अलग हुरूफ हैं। अबुल-आलिया रह. फ्रमाते हैं कि ये तीन हुरूफ ‘अलिफ़्’ ‘लाम’ और ‘मीम’ उन्नीस हुरूफ में से हैं जो तमाम ज़बानों में आते हैं। इनमें से हर-हर हर्फ अल्लाह तआला के एक-एक नाम ■ के शुरू का हर्फ है, और अल्लाह तआला की नेमत और उसकी बला का है, और उसमें कौमों की मुद्दत और उनके वक़्त का बयान है। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के ताज्जुब करने पर कहा गया था कि वे लोग ■ कैसे कुफ्र करेंगे? उनकी ज़बानों पर अल्लाह तआला के नाम हैं, उसके दिये हुए रिज़्क़ पर वे पलते हैं।
‘अलिफ़्’ से खुदा का नाम अल्लाह शुरू होता है और ‘लाम’ से उसका नाम ‘लतीफ’ शुरू होता है और ‘मीम’ से उसका नाम ‘मजीद’ शुरू होता है, और ‘अलिफ’ से मुराद ‘आला-उ’ यानी नेमतें हैं और ‘लाम’ से मुराद अल्लाह तआला का लुत्फ (मेहरबानी व करम) है और ‘मीम’ से मुराद अल्लाह तआला की बुजुर्गी और बड़ाई है। अलिफ़ से मुराद एक साल है और लाम से तीस साल हैं और मीम से चालीस साल। (इब्ने ■ अबी हातिम) इमाम इब्ने जरीर ने इन सब मुख्तलिफ (विभिन्न) अक्वाल में ततबीक दी है यानी साबित किया है कि इनमें ऐसा इख़्तिलाफ (टकराव और विरोधाभास) नहीं, जो एक दूसरे के खिलाफ हो। हो सकता है कि ये सूरतों के नाम भी हों और अल्लाह तआला के नाम भी हों और सूरतों के शुरू के अलफाज़ भी हों और इनमें से हर-हर हर्फ से खुदा तआला के एक-एक नाम की तरफ इशारा भी हो और उसकी सिफ्तों की तरफ भी और मुद्दत वगैरह की तरफ भी एक-एक लफ़्ज़ कई-कई मायने में आता है। जैसे लफ़्ज़ ‘उम्मत’ कि इसके एक मायने हैं ‘दीन’। जैसे कुरआन में हैः
यानी हमने अपने बाप-दादों को इसी दीन पर पाया। दूसरे मायने हैं, खुदा का इताअत-गुज़ार बन्दा। जैसे फरमायाः
إِنَّا وَجَدْنَا آبَاءَ نَا عَلَى أُمَّةٍ.
إِنَّ إِبْرَاهِيمَ كَانَ أُمَّةً. यानी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह तआला के मुतीऊ, फरमाँबरदार और मुख्लिस बन्दे थे और वह मुरिकों में से न थे। तीसरे मायने जमाअत के हैं जैसे फरमायाः
الخ. यानी एक जमाअत को उस कुँए पर पानी पिलाते हुए पाया। एक और जगह हैः وَجَدَ عَلَيْهِ أُمَّةً.. وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَّسُولًا.
وَادَّ كَرَبَعْدَ أُمَّةٍ. यानी हमने हर जमाअत में रसूल भेजा। चौथे मायने हैं मुद्दत और ज़माना। फरमान हैः
यानी एक मुद्दत के बाद उसे याद आया।
पस जिस तरह यहाँ एक लफ़्ज़ के कई मायने हुए इसी तरह मुम्किन है कि इन हुरूफे मुकत्ताआत के
भी कई मायने हों। इमाम इब्ने जरीर की इस तहकीक पर हम कह सकते हैं कि अबुल-आलिया ने जो तफसीर की है उसका मतलब तो यह है कि यह एक लफ़्ज़ एक साथ एक ही जगह इन सब मायने में है और लफ़्ज़ ‘उम्मत’ वगैरह जो कई-कई मायनों में आते हैं जिन्हें इस्तिलाह (परिभाषा) में मुश्तरक अलफाज़ कहते हैं, इनके मायने हर जगह अलग-अलग तो ज़रूर होते हैं लेकिन हर जगह एक ही मायने होते हैं जो इबारत के करीने (मज़मून के अन्दाज़े) से मालूम हो जाते हैं। एक ही जगह सब के सब मायने मुराद नहीं होते और सब पर एक जगह महमूल करने के बारे में उलेमा-ए-उसूल का बड़ा इख्तिलाफ है और हमारे तफसीरी विषय से इसका बयान ख़ारिज है। वल्लाहु आलम।
दूसरे यह कि ‘उम्मत’ वगैरह अलफाज़ के मायने हैं तो बहुत सारे और ये अलफाज़ इसी लिये बनाये गये हैं और कलाम की बन्दिश और अलफाज़ के मौके के लिहाज़ से एक मायने ठीक बैठ जाते हैं, लेकिन ■ एक हर्फ की दलालत एक ऐसे नाम पर कि मुम्किन है कि वह दूसरे ऐसे नाम पर भी दलालत करता हो • और एक को दूसरे पर कोई फज़ीलत न हो, न तो मुकद्दर मानने से न ज़मीर देने से, न मुकर्रर करने के • एतिबार से और न किसी और एतिबार से, तो ऐसी बात इल्मी तौर पर नहीं समझी जा सकती। अलबत्ता अगर मन्कूल (किसी सहाबी या मोतबर आलिम से नकूल की गयी) हो तो और बात है, लेकिन यहाँ इख्तिलाफ (मतभेद) है, इजमा (सर्वसम्मति) नहीं, इसलिये यह फैसला काबिले-गौर है।
अब बाज़ अरबी शे’रों में जो इस बात की दलील में पेश किये जाते हैं कि कलिमे को बयान करने के ■ लिये सिर्फ उसका पहला हर्फ बोल देते हैं, यह ठीक है लेकिन उन अश्आर में खुद इबारत ऐसी होती है जो उस पर दलालत करती है। एक हर्फ के बोलते ही पूरा कलिमा समझ में आ जाता है, लेकिन यहाँ ऐसा भी ■ नहीं। वल्लाहु आलम ।
इमाम कुर्तुबी कहते हैं कि एक हदीस में है जो मुसलमान के कत्ल पर आधे कलिमे से भी मदद करे • मतलब यह है कि ‘उक्तुल’ (कत्ल कर) पूरा न कहे बल्कि सिर्फ ‘उक्’ कहे। मुजाहिद कहते हैं कि सूरतों के ■ शुरू में जो ये हुरूफ हैं जैसे “कॉफ, सॉद, हा-मीम, तों-सीन-मीम, अलिफ़्-लाम-रा” वगैरह, ये सब हुरूफे हिज्जा हैं। बाज़ अरबी के माहिर कहते हैं कि ये हुरूफ अलग-अलग जो अट्ठाईस हैं, इनमें से चन्द ज़िक्र करके बाकी को छोड़ दिया गया है। जैसे कोई कहे कि मेरा बेटा ‘अलिफ़, बा, ता, सा’ लिखता है तो ■ मतलब यह होता है कि ये तमाम अट्ठाईस हुरूफ लिखता है, लेकिन शुरू के चन्द हुरूफ ज़िक्र कर दिये। बाकी को छोड़ दिया। सूरतों के शुरू में इस तरह के कुल चौदहं हुरूफ आये हैं:
इन सबको अगर मिला लिया जाये तो यह इबारत बनती हैः
ال م ص ركه ى ع ط س ح ق ن . نص حكيم قاطع له سر. संख्या के लिहाज़ से ये हुरूफ चौदह हैं और तमाम हुरूफ चूँकि अट्ठाईस हैं इसलिये ये पूरे आधे हुए। जो हुरूफ बयान किये गये ये उन हुरूफ से जो नहीं लाये गये ज़्यादा फज़ीलत वाले हैं और यह भी कलाम ■ का एक अन्दाज़ है। एक हिक्मत इसमें यह भी है कि जितनी किस्म के हुरूफ थे उतनी किस्में अक्सरियत के एतिबार से इनमें आ गयीं, यानी महमूसा मजहूरा वगैरह। सुब्हानल्लाह! हर चीज़ में उस मालिक की एक शान नज़र आती है। यह यकीनी बात है कि खुदा का कलाम बेकार, बेहूदा, बेफायदा और बेमानी अलफाज़ से पाक है, जो जाहिल लोग कहते हैं कि सिरे से इन हुरूफ के कुछ मायने ही नहीं वे बिल्कुल
गलती पर हैं।
इनके कुछ न कुछ मायने यकीनन हैं। अगर नबी-ए-मासूम अलैहिस्सलाम से इनके मायने कुछ साबित हों तो हम वो मायने करेंगे और समझेंगे, वरना जहाँ हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कुछ मायने बयान नहीं किये हम भी न करेंगे और ईमान लायेंगे कि यह खुदा की तरफ से है। हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस बारे में कोई वज़ाहत नहीं फरमाई और उलेमा का इसमें बेहद इख्तिलाफ (मतभेद) है। अगर किसी को किसी कौल की दलील मालूम हो जाये तो खैर वह उसे मान ले वरना बेहतर यह है कि इन हुरूफ के कलामे खुदा होने पर ईमान लाये और यह जाने कि इनके मायने ज़रूर हैं जो खुदा ही को मालूम हैं और हम पर ज़ाहिर नहीं हुए।
दूसरी हिक्मत इन हुरूफ के लाने में यह भी है कि इनसे सूरतों की इब्तिदा (प्रारम्भ होना) मालूम हो ■ जाये, लेकिन यह वजह ज़ईफ (कमज़ोर) है, इसलिये कि इसके बगैर ही सूरतों का अलग-अलग होना मालूम ■ हो जाता है। जिन सूरतों में इन हुरूफ में से कोई नहीं लाया गया क्या उनकी इब्तिदा इन्तिहा (शुरू और • आख़िर) मालूम नहीं? फिर सूरतों से पहले “बिस्मिल्लाह……” का पढ़ने और लिखने के एतिबार से मौजूद ■ होना क्या एक सूरत को दूसरी से अलग नहीं करता? इमाम इब्ने जरीर ने इसकी एक हिक्मत यह भी बयान ■ की है कि चूँकि मुश्रिकीन किताबुल्लाह को सुनते ही न थे इसलिये उन्हें सुनाने के लिये ऐसे हुरूफ लाये गये ताकि जब उनके कान लग जायें तो बाकायदा तिलावत शुरू हो। लेकिन यह वजह भी कमज़ोर है, इसलिये ■ कि अगर ऐसा होता तो तमाम सूरतों की शुरूआत इन्हीं हुरूफ से की जाती, हालाँकि ऐसा नहीं हुआ, बल्कि • अक्सर सूरतें इससे ख़ाली हैं। फिर जब कभी मुश्रिकीन से कलाम शुरू हो, यही हुरूफ चाहियें, न कि सिर्फ सूरतों के शुरू ही में ये हुरूफ हों। फिर इस पर भी गौर कर लीजिए कि यह सूरत यानी सूरः ब-क्रह और ■ इसके बाद की सूरत यानी सूरः आले इमरान यह तो मदीना शरीफ में नाज़िल हुई हैं और मक्का के मुशिक लोग इनके उतरने के वक़्त वहाँ थे ही नहीं, फिर उनमें ये हुरूफ क्यों आये? हाँ यहाँ पर एक और हिक्मत भी बयान की गयी है कि इन हुरूफ के लाने में कुरआने करीम का एक मोजिज़ा है, जिससे तमाम मख्लूक आजिज़ है कि इसके बावजूद कि ये हुरूफ भी रोज़-मर्रा के इस्तेमाली हुरूफ से तरकीब दिये गये हैं लेकिन मख्लूक के कलाम से बिल्कुल निराले हैं। उलेमा और मुहक्किकीन की एक बड़ी जमाअत से भी यही मन्कूल है। अल्लामा ज़मख़्शरी ने तफसीरे कश्शाफ में इस कौल की बहुत कुछ ताईद की है। शैख इमाम अल्लामा ■ इब्ने तैमिया रह. और हाफिज़े मुज्हतिद अबुल-हाज्ज मिज़्ज़ी ने भी यही हिक्मत बयान की है। ज़मख़शरी फरमाते हैं- यही वजह है कि तमाम हुरूफ इकट्ठे नहीं आये। हाँ इन हुरूफ को मुर्कार (बार-बार) लाने की यह वजह है कि बार-बार मुश्रिकीन को आजिज़ और लाजवाब किया जाये और उन्हें डाँटा और धमकाया ■ जाये, जिस तरह कुरआने करीम में अक्सर किस्से कई-कई मर्तबा लाये गये हैं और बार-बार खुले अलफाज़ में भी कुरआन के जैसा लाने में उनकी आजिज़ी को बयान किया गया है। बाज़ जगह तो सिर्फ एक-एक हर्फ आया है जैसे “सॉद, नून, काफ” कहीं दो हुरूफ आये हैं जैसे ‘हा-मीम्’ कहीं तीन हुरूफ आये हैं जैसे ‘अलिफ लाम्-मीम्’ कहीं चार हुरूफ आये हैं जैसे ‘अलिफ लाम-मीम-रा’ और ‘अलिफ लाम-मीम-सौंद’ और कहीं पाँच आये हैं। जैसे ‘काफ-हा-या-ऐन-सॉद’ और ‘हा-मीम-ऐन-सीन-काफ’। इसलिये कि अरब के कलिमात तमाम के तमाम इसी तरह पर हैं, या तो उनमें एक हर्फी लफ़्ज़ हैं या दो हर्फी लफ़्ज़, या तीन हर्षी या चार हर्फी या पाँच हुरूफ वाले। पाँच हुरूफ से ज़्यादा के कलिमात नहीं।
जब यह बात है कि ये हुरूफ कुरआन शरीफ में बतौर मोजिज़े के आये हैं तो ज़रूरी था कि जिन सूरतों के शुरू में ये हुरूफ आये हैं वहाँ ज़िक्र भी कुरआने करीम का हो और कुरआन की बुजुर्गी और बड़ाई
का बयान हो, चुनाँचे ऐसा ही है। उन्तीस सूरतों में यह वाके हुआ है। सुनिये अल्लाह का फरमान हैः الم. ذَلِكَ الْكِتَبُ لَا رَيْبَ فِيهِ. यहाँ भी इन हुरूफ के बाद ज़िक्र है कि इस कुरआन के खुदा का कलाम होने में कोई शक नहीं। एक الم. اللهُ لَا إِلَهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ . نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتَبُ بالحَقِّ مُصَدِّ قَالَمَا بَيْنَ يَدَيْهِ Ma वह अल्लाह जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, जो ज़िन्दा और हमेशगी वाला है, जिसने तुम पर हक के साथ किताब नाज़िल फरमाई है, जो किताब पहले की किताबों की भी तस्दीक करती है। यहाँ भी इन हुरूफ के बाद कुरआने करीम की बड़ाई का इज़हार किया गया। एक और जगह फरमायाः الخ. यानी यह किताब तेरी तरफ उतारी गयी है, तू अपना दिल तंग न रख। एक और जगह फरमायाः الخ. المص. كِتَبٌ أُنْزِلَ إِلَيْكَ .. الر. كِتَبٌ أَنْزَلْنَهُ إِلَيْكَ. इस किताब को हमने तेरी तरफ नाज़िल किया ताकि तू लोगों को अपने रब के हुक्म से अन्धेरों से निकालकर उजाले में लाये। एक और जगह इरशाद होता है: الم. تَنزِيلُ الْكِتَابِ لَا رَيْبَ فِيهِ مِنْ رَّبِّ الْعَلَمِينَ. इस किताब के रब्बुल-आलमीन की तरफ से नाज़िल शुदा होने में कोई शक व शुब्हा नहीं। एक और जगह फरमाता हैः
Ashr
और जगह फरमायाः
الَمَ تَنزِيلٌ مِّنَ الرَّحْمَنِ الرَّحِيمِ. बख्रिशशों और मेहरबानियों वाले खुदा ने इसे नाज़िल फरमाया है। एक और जगह फरमान हैः الخ. حمعسق. كَذَالِكَ يُوحِي إِلَيْكَ .. यानी इसी तरह ‘वहीं’ करता (अपना पैगाम भेजता) है अल्लाह तआला ग़ालिब हिक्मतों वाला तेरी ■ तरफ और उन नबियों की तरफ जो तुझसे पहले हुए हैं।
और ऐसी सूरतों के शुरू के ध्यान से देखिये तो मालूम होता है कि इन हुरूफ के बाद कलामे पाक की बड़ाई व इज़्ज़त का ज़िक्र है, जिससे यह बात कवी मालूम होती है कि ये हुरूफ इसलिये लाये गये हैं कि लोग इस जैसा कलाम पेश करने और इसका मुकाबला करने से आजिज़ हैं। वल्लाहु आलम।
बाज़ लोगों ने यह भी कहा है कि इन हुरूफ से मुद्दत मालूम कराई गयी है, फितनों, लड़ाईयों और ऐसे ■ ही दूसरे कामों के वक़्त बताये गये हैं लेकिन यह कौल भी बिल्कुल ज़ईफ (कमज़ोर) मालूम होता है। इसकी दलील में एक हदीस भी बयान की जाती है, लेकिन अव्वल तो वह ज़ईफ है, दूसरे उस हदीस से इस कौल ■ की पुख्तगी तो एक तरफ इसका बातिल होना ज़्यादा साबित होता है। वह हदीस मुहम्मद बिन इस्हाक बिन यसार ने रिवायत की है जो तारीख के लेखक हैं। उस हदीस में है कि अबू यासिर बिन अख़्तब यहूदी अपने चन्द साथियों को लेकर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुआ, आप उस वक़्त सूरः ब-करह की शुरू की आयतः
المَ. ذَلِكَ الْكِتَبُ لَا رَيْبَ فيه
(बिल्कुल शुरू की ही आयते) आयते) तिलावत तिलावत फरमा रहे थे। वह इसे सुनकर अपने भाई हुय्यिा बिन अख्तब के पास आता है और कहता है कि मैंने आज हुजूर अलैहिस्सलाम को इस आयत की तिलावत करते हुए सुना ■है। वह पूछता है तूने खुद सुना है? उसने कहा हाँ! मैंने खुद सुना है। हुय्यि उन सब यहूदियों को लेकर फिर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आता है कि हुजूर क्या यह सच है कि आप इस आयत को पढ़ रहे थे? आपने फरमाया हाँ सच है। उसने कहा सुनिये! आप से पहले जितने नबी आये किसी को भी नहीं बतलाया गया था कि उसका मुल्क और मज़हब कब तक रहेगा, लेकिन आपको बतला दिया गया। फिर खड़ा होकर लोगों से कहने लगा- सुनो! ‘अलिफ’ का अदद (संख्या / नम्बर) हुआ एक, लाम् के तीस, मीम् ■ के चालीस, कुल मिलाकर 71 हुए। क्या तुम उस नबी की ताबेदारी करना चाहते हो जिसके मुल्क और उम्मत की मुद्दत कुल 71 साल हो? फिर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ मुतवज्जह होकर मालूम किया कि क्या कोई और आयत भी ऐसी है? आपने फरमाया “अलिफ लाम् मीम् सॉद” कहने लगा यह बड़ी भारी और बहुत लम्बी है। अलिफ का एक, लाम के तीस, मीम के चालीस, सॉद के नब्बे, ये सब एक सौ इक्सठ साल हुए। कहा और कोई भी ऐसी आयत है? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया “अलिफ लाम-रा” कहने लगा यह भी बहुत भारी और लम्बी है, अलिफ का एक, लाम के तीस और ‘र’ के ■ दो सौ, कुल मिलकार दो सौ इकत्तीस बरस हुए। क्या इसके साथ कोई और ऐसी आयत भी है? फ्रमाया हौं “अलिफ लाम मीम रा” कहा यह तो बहुत ही भारी है। अलिफ का एक, लाम के तीस, मीम के चालीस, ■रा के दो सौ, सब मिलकर दो सौ इकहत्तर हो गये तो अब काम मुश्किल हो पड़ा और बात गलत हो गयी, लोगो चलो उठ चलो। अबू यासिर ने अपने भाई से और दूसरे यहूदी उलेमा से कहा क्या अजब कि इन सब हुरूफ का मजमूआ हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मिला हो? इक्हत्तर एक, एक सौ इकत्तीस एक, दो सौ इकत्तीस एक, दो सौ इक्हत्तर एक, ये सब मिलकर सात सौ चार बरस हुए। उन्होंने कहा अब काम खल्त-मल्त हो गया। बाज़ लोगों का ख्याल है कि ये आयतें इन्हीं लोगों के हक में नाज़िल हुई हैं:
100
पारा (1) सूरः बन्करह
الخ. هُوَ الَّذِي أَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتَبَ مِنْهُ آيَاتٌ مُحْكَمْتُ .. यानी वह खुदा जिसने तुझ पर किताब नाज़िल फरमाई, जिसमें मोहकम आयतें हैं, जो किताब की • असल हैं और दूसरी आयतें मुशाबहत वाली भी हैं। इस हदीस का दारो-मदार मुहम्मद बिन सायब कलबी पर ■ है और जिस हदीस का अकेला रावी हो मुहद्दिसीन हज़रात उससे हुज्जत नहीं पकड़ते, और फिर इस तरह अगर मान लिये जाये और हर ऐसे हर्फ के अदद (नम्बर) निकाले जायें तो जिन चौदह हुरूफ को हमने ■ बयान किया उनके अदद बहुत सारे हो जायेंगे और जो हुरूफ उनमें से कई बार आये हैं अगर उनके अदद का शुमार भी कई बार लगाया जाये तो बहुत बड़ी गिनती हो जायेगी। वल्लाहु आलम।
Tafheem ul Quran Surat ul Baqarah Tafseer hindi
Surat No. 2 Ayat NO. 0
सूरा-2, अल-बक़रा नाम और नाम रखने की वजह इस सूरा का नाम बक़रा इसलिये है कि इसमें एक जगह बक़रा [गाय] का ज़िक्र आया है। क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने ज़्यादा मज़मूनों को बयान किया गया है कि उनके लिये मज़मून के लिहाज़ से जामेअ उन्वान [व्यापक शीर्षक] मुतैयन नहीं किया जा सकता। अरबी ज़बान हालाँकि अपनी लुग़त के लिहाज़ से बहुत ही मालदार है मगर बहरहाल है तो इन्सानी ज़बान ही। इंसान जो भी ज़बानें बोलता है, वो इतनी ज़्यादा तंग और महदूद हैं कि वो ऐसे अलफ़ाज़ या जुमले नहीं जुटा सकतीं जो वासीअ मज़ामीन [व्यापक विषयों] के लिये जमेअ उन्वान बन सकते हों। इसलिये नबी [सल्ल०] ने अल्लाह की रहनुमाई से क़ुरआन की ज़्यादातर सूरतों के लिये उन्वानों की जगह पर नाम तजवीज़ किये हैं, जो सिर्फ़ अलामत [पहचान] का काम देते हैं। इस सूरा को बक़रा कहने का मतलब ये नहीं है कि इसमें गाय के बारे में बहस [वार्ता] की गई है, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि वो सूरा जिसमें गाय का ज़िक्र आया है। उतरने का ज़माना इस सूरा का ज़्यादातर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदनी ज़िन्दगी के बिलकुल शुरूआती दौर में उतरा है और बहुत थोड़ा हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और मज़मून की मुनासिबत के लिहाज़ से इसमें शामिल कर दिया गया, यहाँ तक कि ब्याज [सूद] के मना किये जाने के सिलसिले में जो आयतें उतरी हैं वो भी इसमें शामिल हैं, हालाँकि वो नबी [सल्ल०] की ज़िन्दगी के बिलकुल आख़िरी ज़माने में उतरी थीं। सूरा का ख़ातिमा जिन आयतों पर हुआ है वो हिजरत से पहले मक्का में उतर चुकी थीं। मगर मज़मून की मुनासिबत से उनको भी इसी सूरा में शामिल कर दिया गया है। शाने-नुज़ूल (पृष्ठभूमि) इस सूरा को समझने के लिये पहले इसका तारीख़ी पसमंज़र अच्छी तरह समझ लेना चाहिए- 1- हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, ख़िताब ज़्यादातर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिये इस्लाम की आवाज़ एक नई और ग़ैर-मानूस (अपरिचित) आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता येूदियों से पड़ा जिनकी बस्तियाँ मदीना से बिलकुल मिली हुई थीं। ये लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वो्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों के क़ायल थे, उस शरई ज़ाब्ते (धर्म विधान) को तस्लीम करते थे जो ख़ुदा की तरफ़ से उनके नबी मूसा (अलै०) पर उतरा था। और उसूली तौर पर उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था जिसकी तालीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों की लगातार गिरावट ने उनको असल दीन से बहुत दूर हटा दिया था। (उस वक़्त हज़रत मूसा (अलै०) को गुज़रे हुए लगभग उन्नीस सदियाँ गुजर चुकी थीं। इसराईली तारीख़ के हिसाब से हज़रत मूसा (अलै०) का इंतिक़ाल 1272 ई० पूर्व हुआ और नबी (सल्ल०) सन 610 ई० में पैग़म्बर बनाए गए।) उनके अक़ीदों (आस्थाओं) में बहुत-सी ग़ैर-इस्लामी बातें दाख़िल हो गई थीं, जिनके लिये तौरात में कोई दलील मौजूद नहीं थी। उनकी अमली ज़िन्दगी में बहुत-सी ऐसी रस्में और तरीक़े रिवाज पा गए थे जो असल दीन में न थे और जिनके लिये तौरात में कोई सुबूत न था। ख़ुद तौरात में उन्होंने इन्सानी बातों को दाख़िल करके गडमड कर दिया था। ख़ुदा की बातें जिस हद तक लफ़्ज़ी तौर से या मानी के लिहाज़ से महफ़ूज़ थीं उनको भी उन्होंने अपने मनमाने मतलबों और तफ़सीरों से बिगाड़ कर रख रखा था। दीन की असल रूह उनमें से निकल चुकी थी और ज़ाहिरी मज़हबियत का सिर्फ़ एक बेजान ढाँचा बाक़ी था जिसको वो सीने से लगाए हुए थे। उनके उलमा और बुज़ुर्गों, उनकी क़ौम के सरदारों और आम जनता सबकी एतिक़ादी, अख़लाक़ी और अमली हालत बिगड़ गई थी। और अपने इस बिगाड़ से उनको ऐसी मुहब्बत थी कि वो किसी तरह के सुधार को भी क़बूल करने पर तैयार नहीं होते थे। सदियों से लगातार ऐसा हो रहा था कि जब अल्लाह का कोई बन्दा उन्हें दीन का सीधा रास्ता बताने आता तो वो उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझते और हर मुमकिन तरीक़े से कोशिश करते कि वो किसी भी तरह सुधार करने में कामयाब न हो सके। ये लोग हक़ीक़त में बिगड़े हुए मुसलमान थे, जिनके यहाँ बिदअतों और (दीनी और धार्मिक बातों में) फेर-बदल और बाल की खाल निकालने की आदतों, फ़िरक़ाबन्दियों, नस्लपरस्ती, बाप-दादाओं के नाम पर इज़्ज़त की चाह और घमंड, ख़ुदा को भुला देना और दुनियापरस्ती की वजह से गिरावट इस हद को पहुँच चुकी थी कि वो अपने असल नाम मुस्लिम (ख़ुदा का फ़रमाँबरदार) तक भूल गए थे। वो सिर्फ़ यहूदी बनकर रह गए थे और अल्लाह के दीन को उन्होंने सिर्फ़ इसराईल नस्ल की आबाई विरासत बनाकर रख लिया था। चुनाँचे जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे तो अल्लाह ने आपको हिदायत की कि उनको असल दीन की तरफ़ बुलाएँ। इसी लिये इस सूरा बक़रा की शुरूआती 141 आयतों में इसी दावत और पैग़ाम का ज़िक्र है। उनमें येूदियों के इतिहास और उनकी अख़लाक़ी और दीनी हालत की जिस तरह तनक़ीद (आलोचना) की गई है और जिस तरह उनके बिगड़े हुए दीन और अख़लाक़ की नुमायाँ ख़ूबियों के मुक़ाबले में सच्चे दीन के उसूल पहलू-ब-पहलू पेश किये गए हैं इससे ये बात बिलकुल आईने की तरह वाज़ेह हो जाती है कि एक पैग़म्बर की उम्मत के बिगाड़ की नौइयत क्या होती है। रस्मी दीनदारी के मुक़ाबले में सच्ची दीनदारी किस चीज़ का नाम है। सच्चे दीन के बुनियादी उसूल क्या हैं और ख़ुदा की निगाह में असल अहमियत किन चीज़ों की है। 2 मदीना पहुँचकर इस्लाम की दावत और उसका पैग़ाम एक नए मरहले में दाख़िल हो चुका था। मक्का में तो मामला सिर्फ़ दीन की बुनियादी बातों की तबलीग़ और दीन के क़बूल करनेवालों की अख़लाक़ी तरबियत तक महदूद था। लेकिन जब अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के मक्का से मदीना आ जाने के बाद अरब के मुख़्तलिफ़ क़बीलों के वो सब लोग जो इस्लाम क़बूल कर चुके थे हर तरफ़ से सिमट कर एक जगह जमा होने लगे और मदीना के रहनेवाले मुसलमानों (अंसार) की मदद से एक छोटी-सी इस्लामी हुकूमत की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने तमद्दुन (संस्कृति), समाज, मुआशी मामलों, क़ानून और सियासत के बारे में भी उसूली हिदायतें देनी शुरू कीं और बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर ये नया निज़ामे-ज़िन्दगी किस तरह क़ायम किया जाए। इस सूरा की आयत 142 से लेकर आख़िर तक की आयतों में ज़्यादातर यही हिदायतें बयान की गई हैं। इन हिदायतों में से ज़्यादातर शुरू ही में भेज दी गई थीं और कुछ अलग-अलग शक्ल में ज़रूरत के मुताबिक़ बाद में भेजी जाती रहीं। 3 हिजरत के बाद इस्लाम और ग़ैर-इस्लाम की कश-म-कश भी एक नए मरहले में दाख़िल हो चुकी थी। हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की दावत ख़ुद कुफ़्र के घर में दी जा रही थी और मुख़्तलिफ़ क़बीलों में से जो लोग इस्लाम क़बूल करते थे, वो अपनी-अपनी जगह रहकर ही इस्लाम की तबलीग़ करते और जवाब में ज़ुल्म और मुसीबतों को झेलते रहते थे, मगर हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटी-सी आज़ाद हुकूमत क़ायम कर ली तो हालत ये हो गई कि एक तरफ़ एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी तरफ़ तमाम अरब उसको जड़ से उखाड़ फेंकने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी भर गरोह की कामयाबी का ही नहीं, बल्कि उसके वुजूद और बाक़ी रहने का दारोमदार भी इस बात पर था कि सबसे पहले तो वो पूरे जोश और उमंग के साथ अपने मसलक की तबलीग़ करके ज़्यादा-से ज़्यादा लोगों को अपने अक़ीदे वाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वो मुख़ालिफ़ों का ग़लत रास्ते पर होना इस तरह साबित कर दे कि किसी भी अक़्ल रखने वाले इन्सान को उसमें शक न रहे। तीसरे बेघर होने और पूरे देश की दुश्मनी और रुकावटों से दोचार होने की वजह से भुखमरी और हर वक़्त बेअम्नी और बेइत्मीनानी की जो हालत उन पर तारी हो गई थी और जिन ख़तरों में वो चारों तरफ़ से घिर गए थे, उनमें वो भयभीत और मायूस न हों, बल्कि पूरे सब्र और जमाव के साथ इन हालात का मुक़ाबिला करें और अपने इरादों में ज़रा भी डगमगाहट न आने दें। चौथे ये कि वो पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबंद रुकावट का मुक़ाबिला करने के लिये तैयार हो जाएँ, जो उनकी दावत और पैग़ाम को नाकाम करने के लिये किसी ताक़त की तरफ़ से की जाए। और इस बात की ज़रा परवाह न करें कि दुश्मनों की तादाद और उनकी माद्दी (भौतिक) ताक़त कितनी ज़्यादा है। पाँचवों इनमें इतनी हिम्मत पैदा की जाए कि अगर अरब के लोग इस नए निज़ाम को, जो इस्लाम क़ायम करना चाहता है, समझाने-बुझाने से क़बूल न करें तो उन्हें जाहिलियत के बिगड़े हुए निज़ामे-ज़िन्दगी को ताक़त के ज़ोर पर मिटा देने में भी झिझक महसूस न करें। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में बुनियादी हिदायतें दी हैं। 4 इस्लामी दावत के इस मरहले में एक नया तबक़ा भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और ये मुनाफ़िक़ों का तबक़ा था। हालाँकि निफ़ाक़ (कपट) के शुरूआती आसार मक्का के आख़िरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, मगर वहाँ सिर्फ़ इस क़िस्म के मुनाफ़िक़ पाए जाते थे, जो इस बात को तो मानते थे कि इस्लाम दीने-हक़ है और ईमान का ज़बान से इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिये तैयार न थे कि उस हक़ के लिये अपने हक़ को क़ुरबान करें अपने दुनियावी सम्बन्धों को तोड़ दें और उन मुसीबतों और परेशानियों को भी सहन कर लें जो उस सच्चे रास्ते को क़बूल करने के साथ ही आनी शुरू हो जाती थीं। मदीना पहुँच कर इस तरह के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और तरह के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी जमाअत में पाए जाने लगे। एक तरह के मुनाफ़िक़ वो थे जो बिलकुल ही इस्लाम के इनकारी थे और सिर्फ़ फ़ितना और फ़साद पैदा करने के लिये इस्लामी उम्मत की हुकूमत के दायरे में घिर जाने की वजह से अपना फ़ायदा और भलाई इसी में देखते थे कि एक तरफ़ मुसलमानों में भी अपनी गिनती कराएँ और दूसरी तरफ़ इस्लाम के दुश्मनों से भी ताल्लुक़ रखें, ताकि दोनों तरफ़ के फ़ायदे उन्हें मिलते रहें और दोनों तरफ़ के ख़तरों से वो बचे रहें। तीसरी तरह के वो लोग थे जो इस्लाम और जाहिलियत (ग़ैर-इस्लाम) के बीच शक और झिझक की कैफ़ियत में पड़े हुए थे। उन्हें इस्लाम के सच्चा दीन होने पर पूरा इत्मीनान न था, मगर चूँकि उनके क़बीले या ख़ानदान के ज़्यादातर लोग मुसलमान हो चुके थे इसलिये वो भी मुसलमान हो गए थे। चौथी क़िस्म में वो लोग शामिल थे जो इस बात को तो मानते थे कि इस्लाम सच्चा दीन है मगर जाहिलियत (अज्ञान) के तरीक़े और अन्धविश्वास और रस्मो-रिवाज को छोड़ने और अख़लाक़ी पाबन्दियाँ क़बूल करने, फ़र्ज़ों और ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने से उनका मन इनकार करता था। सूरा बक़रा के उतरने के वक़्त उन मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मुनाफ़िक़ों के ज़ाहिर होने की सिर्फ़ शुरुआत थी, इसलिये अल्लाह ने उनकी तरफ़ सिर्फ़ हलके इशारे किये हैं। बाद में जितने-जितने उनके किरदार और हरकतें सामने आती गईं, उतनी ही तफ़सील के साथ बाद की सूरतों में हर क़िस्म के मुनाफ़िक़ों के बारे में उनके क़िस्म के लिहाज़ से अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।