सूरः फातिहा
सूरः फातिहा की तफ्सीर और कुछ बुनियादी व मालूमाती बातें
- सूरः फातिहा सूरः फातिहा मक्का में नाज़िल हुई। इसमें सात आयतें हैं।
- पीछे आगे
हज़रत कृतादा रह. फरमाते हैं कि सूरः ब-क्रह, सूरः आले इमरान, सूरः निसा, सूरः मायदा, सूरः बराअत, सूरः रअद, सूरः नहल, सूरः हज, सूरः नूर, सूरः अहज़ाब, सूरः मुहम्मद, सूरः फतह, सूरः हुजुरात, सूरः रहमान, सूरः हदीद, सूरः मुजादला, सूरः हश्र, सूरः मुम्तहिना, सूरः सफ्फ, सूरः जुमुआ, सूरः मुनाफिकून, सूरः तगाबुन, सूरः तलाक, सूरः तहरीम, सूरः ज़िलज़ाल और सूरः नस्र, ये सब सूरतें तो मदीना शरीफ में • नाज़िल हुईं और बाकी तमाम सूरतें मक्का शरीफ में नाज़िल हुई। कुरआने करीम की तमाम आयतें छह
• हज़ार हैं, इससे ऊपर इख्तिलाफ (मतभेद) है। बाज़ तो इस पर ज़्यादा नहीं बतलाते। बाज़ दो सौ चार ■ आयतें छह हज़ार से ज़ायद बतलाते हैं। बाज़ दो सौ चौदह आयतें, बाज़ दो सौ उन्नीस, बाज़ दो सौ पच्चीस, • बाज़ दो सौ छब्बीस।
अबू अमर दानी ने अपनी किताब ‘अल-बयान’ में यह सब लिखा है। कुरआन शरीफ के कलिमात के ■ बारे में हज़रत अता बिन यसार फरमाते हैं कि सत्तर हज़ार चार सौ उन्तालीस कलिमात हैं। हुरूफ की • गिनती के बारे में हज़रत मुजाहिद रह. से मरवी है कि कुरआन शरीफ के तमाम हुरूफ तीन लाख इक्कीस ■ हज़ार एक सौ अस्सी हैं। फल बिन अता बिन यसार फरमाते हैं कि तमाम हुरूफ तीन लाख तेईस हज़ार पन्द्रह हैं। हज्जाज ने अपने ज़माने में कारियों हाफिज़ों और कातिबों को जमा करके मालूम किया कि कुरआन करीम के हुरूफ गिनती करके मुझे बतलाओ तो सबने हिसाब करके बिल-इत्तिफाक (सर्वसम्मति से) कहा कि तीन लाख चालीस हज़ार सात सौ चालीस हुरूफ हैं। फिर हज्जाज ने कहा अच्छा हुरूफ के एतिबार से आधा कुरआन शरीफ कहाँ होता है? तो हिसाब से मालूम हुआ कि सूरः कहफ में “वल्य-तलत्तफ्” की “फ” पर ठीक आधा कुरआन होता है और सूरः बराअत की सौ आयतों पर कुरआने करीम का पहला तिहाई हिस्सा हुरूफ के एतिबार से ख़त्म होता है, और दूसरी तिहाई सूरः शुज़रा की सौ आयत के सिरे पर या एक सौ एक आयत के सिरे पर ख़त्म होती है, और तीसरी तिहाई आखिर तक। और अगर मन्ज़िलों का शुमार किया जाये, यानी सात हिस्से कुरआने करीम के किये जायें तो पहली मन्ज़िल “सद्द” की “दाल” पर ख़त्म होती है जो इस आयत में है:
فَمِنْهُمْ مِّنْ آمَنَ بِهِ وَمِنْهُمْ مَنْ صَدَّ عَنْهُ.
(सूरः निसा आयत 55) और दूसरी मन्ज़िल “हबितत्” की “त” पर ख़त्म होती है जो सूरः आराफ की आयत “उलाइ-क हबितत्” (सूरः आराफ आयत 147) में है और तीसरी मन्ज़िल “उकुलहा” के आखिरी “अलिफ” पर जो सूरः रअद (सूरः रअद आयत 35) में है और चौथी मन्ज़िल “जअल्ना” के “अलिफ्” पर जो सूरः हज की आयत “जअल्ना मन्सकन्” (सूरः हज आयत 67) में है और पाँचवीं मन्ज़िल मुअभिनतुन” की “ह” पर जी सूरः अहज़ाब में आयत ‘व मा का-न लिमुअमिनिंव्-व ला मुग्मिनतिन् ■ (सूरः अहज़ाब आयत 36) में है और छठी मन्ज़िल “अस्सौ-इ” की “वाव” पर जो सूरः फतह की आयत • ‘अज़्ज़ान्नी-न बिल्लाहि ज़न्नस्सौ-इ’ (सूरः फतह आयत 6) में है और सातवीं मन्ज़िल कुरआन पाक के खात्मे ■ पर है। अबू मुहम्मद सलाम का बयान है कि हमने चार महीने की लगातार मेहनत से ये सब बातें मालूम करके हज्जाज को बताईं। हज्जाज को मालूम था कि हर रात पाव कुरआन शरीफ पढ़ा करता था, इस लिहाज़ से पाव कुरआन शरीफ सूरः अन्आम के खात्मे (समापन) पर होता है और आधा सूरः कहफ के लफ़्ज़ “वल्य-तलत्तफ” पर और पौना सूरः जुमर के खात्मे (समापन) पर और पूरा पूरे कुरआन पर। शैख अबू अमर दानी ने अपनी किताब ‘अल-बयान’ में इन बातों में भी इख़्तिलाफ नकल किया है। रहे
Π
कुरआन शरीफ के पढ़ने के एतिबार से हिस्से और अज्ज़ा, सौ मशहूर तो तीस पारे हैं। और एक हदीस में सहाबा किराम रज़ि. का कुरआने करीम को सात मन्ज़िलें करके पढ़ने का बयान है। मुस्नद अहमद, सुनन • अबू दाऊद और इब्ने माजा में है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मुबारक ज़िन्दगी में सहाबा रज़ि. ■ से पूछा गया कि आप कुरआने करीम के वज़ीफे किस तरह करते हैं? तो फरमाया कि पहली तीन सूरतों की एक मन्ज़िल, फिर उनके बाद की पाँच सूरतों की दूसरी मन्ज़िल, फिर उनके बाद की सात सूरतों की तीसरी मन्ज़िल, फिर उनके बाद की नौ सूरतों की चौथी मन्ज़िल, फिर उनके बाद की ग्यारह सूरतों की पाँचवीं मन्ज़िल, फिर उनके बाद की तेरह सूरतों की छठी मन्ज़िल और मुफसल की यानी सूरः “काफ” से लेकर आखिर तक एक मन्जिल ।
[लफ्ज़ ‘सूरत’ की तहकीक]
सूरत (सूरः) की लफ़्ज़ी बहस के बयान में बाज़ तो कहते हैं कि इसके मायने अलैहदगी, बुलन्दी के हैं। चुनाँचे नाबिगा के एक शे’र में सूरत का लफ़्ज़ इस मायने में आया है, तो इस मायने का ताल्लुक् कुरआन की सूरतों के साथ इस तरह होगा कि गोया कुरआन का पढ़ने वाला एक मन्ज़िल से दूसरी मन्ज़िल की तरफ जाता रहता है। और यह भी कहा गया है कि यह शराफत और ऊँचाई के मायने में है, है, इसी लिये ■ शहर-पनाह (शहर के चारों तरफ हिफाज़त के लिये जो चारदीवारी बना ली जाती थी) को अरबी में “सूर” • कहते हैं। और बाज़ कहते हैं कि बरतन में जो हिस्सा बाकी रह जाये उसे अरबी में “असाविरा” कहते हैं ■ और सूरत का लफ़्ज़ इसी से लिया गया है। चूँकि सूरत भी कुरआन का एक हिस्सा और टुकड़ा होती है। ■ एक कौल यह भी है कि सूरत के मायने तमाम व कमाल के हैं, पूरी ऊँटनी को अरबी ज़बान में सूरत कहते हैं, और यह भी मुम्किन है कि जिस तरह किले को अरबी में इसलिये सूर कहते हैं कि महलों और घरों का ■ इहाता (घेराव) कर लेता है और उन्हें जमा कर लेता है इसी तरह चूँकि आयतों को सूरत जमा कर लेती है और उनका इहाता कर लेती है, इसको भी ‘सूरत’ कहा गया।
‘आयत’ को आयत इस वजह से कहते हैं कि आयत के लफ़्ज़ी मायने अलामत और निशान के हैं। चूँकि आयत पर कलाम ख़त्म होता है और पहला मजमून बाद के से अलग होता है इसलिये उसे आयत कहते हैं। कुरआन में भी आयत अलामत और निशान के मायने में इरशाद हैः
إِنَّ آيَةَ مُلْكِهِ.
यानी उसके बादशाह होने की निशानी और अलामत ।
इसी तरह नाबिगा के शे’र में भी आयत इसी मायने में है। आयत के मायने जमाअत और गिरोह के भी आते हैं। अरब के शेरों में यह लफ़्ज़ इस मायने में भी आया है। चूँकि आयत भी हुरूफ की एक जमाअत और गिरोह है इस रियायत से उसे भी आयत कहते हैं। इसी तरह आयत के मायने अजीब के भी हैं, चूँकि यह अजीब चीज़ है, मोजिज़ा है, तमाम इनसान इस जैसी बात नहीं कह सकते इसलिये भी इसे आयत कहते हैं।
‘कलिमा’ कहते हैं एक लफ़्ज़ को। कभी तो उसके दो ही हुरूफ होते हैं जैसे “मा” और “ला” और “लहू” वगैरह, और कभी ज़्यादा भी होते हैं, ज़्यादा से ज़्यादा दस हुरूफ एक कलिमे में होते हैं। जैसे ‘ल-यस्तखलिफन्नहुम’ ‘अनुल्ज़िमुकुमूहा’ फ-अस्कैनाकुमूहा’। और कभी एक ही कलिमे की एक आयत होती है जैसे “वल्-फजिर” और “वज़्ज़ुहा” और “वल्-अस्रि” और इसी तरह “अलिफ लाम्-मीम्” और “तों-हा” और “यासीन” और “हा-मीम्”। कूफियों के कौल में और “हा-मीम् ऐन-सीन्-काफ” उनके नज़दीक दो कलिमे हैं, और इनके अलावा और लोग कहते हैं कि ये आयतें नहीं बल्कि सूरतों का आरम्भ है। अबू अमर ■ दानी फरमाते हैं कि एक कलिमे की आयत कुरआने करीम में सिवाय “मुदाहम्मतान” के जो सूरः रहमान में है और कोई नहीं।
फस्लः इमाम कुर्तुबी फरमाते हैं कि अरबी ज़बान के अलावा अजमी (गैर-अरबी) तरकीब तो कुरआन ■ में है ही नहीं, अलबत्ता “अजमी” (गैर-अरबी) नाम हैं। जैसे, इब्राहीम, नूह, लूत। और इसमें इख़्तिलाफ है कि क्या कुरआन में इसके अलावा भी कुछ अजमी है, तो बाकिलानी और तबरी ने तो साफ इनकार कर दिया है, और कह दिया है कि अजमियत (गैर-अरबी) के मुताबिक जो है वह हकीकत में अरबी ही है, लेकिन (गैर-अरबी के साथ उसकी) मुवाफक्त (यानी वह बज़ाहिर गैर-अरबी दिखता) है।
(तफ्सीर सूरः फातिहा)
“बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” इस सूरत का नाम सूरः फातिहा है। फातिहा कहते हैं शुरू करने को। चूँकि कुरआन में सबसे पहले यही सूरत लिखी है इसलिये इसे सूरः फातिहा कहते हैं और इसलिये भी कि नमाज़ • में किराअत भी इसी से शुरू होती है। इसका नाम “उम्मुल-किताब” भी है। जमहूर यही कहते हैं। हसन ■ और इब्ने सीरीन इसके कायल नहीं, वह कहते हैं कि लौहे-महफूज़ का नाम “उम्मुल-किताब” है, और हसन रह. का कौल है कि मोहकम आयतों को “उम्मुल-किताब” कहते हैं। तिर्मिज़ी की एक सही हदीस में है कि • रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया ‘अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन…….. (पूरी सूरत) ■ यही सूरत “अम्मुल-कुरआन” और “उम्मुल-किताब” है, और “सबओ-मसानी” है और “कुरआने अज़ीम” है • और इस सूरत का नाम “सूरतुल-हम्द” और “सूरतुस्सलात” भी है। हुजूरे पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ■ फरमाते हैं कि अल्लाह तआला ने फरमाया है- मैंने ‘सलात’ (यानी सूरः फातिहा) को अपने और अपने बन्दे ■ के दरमियान आधों-आध तकसीम कर दिया है। जब बन्दा कहता है “अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन” तो अल्लाह तआला फरमाते हैं कि मेरे बन्दे ने मेरी तारीफ की। (यह एक लम्बी हदीस है
इस हदीस से मालूम हुआ कि “सूरः फातिहा” का नाम “सलात” भी है, इसलिये कि इस सूरत का नमाज़ में पढ़ना शर्त है। इस सूरत का नाम “सूरतुश्शिफा” भी है। दारमी में हज़रत अबू सईद से मरफूअन रिवायत है कि “सूरः फातिहा” हर ज़हर की शिफा है और इसका नाम “सूरतुरुक्या” भी है। हज़रत अबू सईद रज़ि. ने जब साँप के काटे हुए शख़्स पर इस सूरत को पढ़कर दम किया और वह अच्छा हो गया तब
तफसीर इब्ने कसीर जिल्द (1)
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पारा (1) सूरः फातिहा
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे फरमाया था तुम्हें कैसे मालूम हो गया कि यह रुक्या है, यानी पढ़कर फेंकने की सूरत है? इब्ने अब्बास रजि. इसे असासुल-कुरआन कहते थे यानी कुरआन की जड़ और नींव, और इस सूरत की नींव “बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” है। सुफियान बिन उयैना रह. फरमाते हैं कि इसका नाम वाफिया है। यहया बिन कसीर रह. कहते हैं कि इसका नाम काफिया भी है, इसलिये कि यह अपने अलावा हर चीज़ से किफायत करती है और दूसरी कोई सूरत इस सूरत से किफायत नहीं करती।
बाज़ मुर्सल हदीसों में भी यह मजमून आया है कि “अम्मुल कुरआन” सब का एवज़ (बदल) बन सकती है लेकिन “अम्मुल कुरआन” का “गैर उम्मुल कुरआन” एवज़ (बदल) नहीं हो सकता। इसे “सूरतुस्सलात” और “सूरतुल कन्ज़” भी कहा गया है। अल्लामा ज़मख़्शरी की तफ्सीर ‘कश्शाफ्’ देखिये। ■ इब्ने’ अब्बास रज़ि., कृतादा, अबुल-आलिया रह. फरमाते हैं कि यह सूरत मक्की है। हज़रत अबू हुरैरह रजि., • मुजाहिद रह., अता बिन यसार रह., ज़ोहरी रह. फरमाते हैं कि यह सूरत मदनी है और यह भी एक कौल है। कि यह सूरत दो मर्तबा नाज़िल हुई, एक मर्तबा मक्का में और दोबारा मदीना में, लेकिन पहला कौल ही ज़्यादा ठीक है। इसलिये कि दूसरी आयत में हैः
وَلَقَدْ آتَيْنَكَ سَبْعًا مِنَ الْمَثَانِي.
यानी हमने तुम्हें “सबज़े-मसानी” (सात आयतें दोहराई जाने वाली) दी हैं। वल्लाह आलम। अबुल-लैस समन्दी रह. का एक कौल इमाम कुर्तुबी रह. ने यह भी नकल किया है कि इस सूरत का आधा हिस्सा तो मक्का शरीफ में नाज़िल हुआ और आखिरी आधा हिस्सा मदीना शरीफ में नाज़िल हुआ, ■
लेकिन यह कौल बिल्कुल गरीब है। इसकी आयतों के बारे में इत्तिफाक (यानी सब की एक राय) है कि सात हैं, लेकिन अमर बिन उबैद ने आठ और हुसैन जोफी ने छह भी कही हैं और ये दोनों कौल शाज़ (गैर-मशहूर और गैर-मकबूल) हैं। ■
“बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” इस सूरत की मुस्तकिल आयत है या नहीं इसमें इख़्तिलाफ (मतभेद) है। ■ तमाम कूफी कारी, सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और ताबिईन रह. की एक जमाअत और पिछले बहुत सारे • बुजुर्ग तो इसे सूरः फातिहा की अव्वल की एक पूरी और मुस्तकिल आयत कहते हैं। बाज़ इसे उसका हिस्सा ■ और जुज़ मानते हैं, और बाज़ सिरे से इस आयत को उसके शुरू में मानते ही नहीं, जैसा कि मदीना शरीफ ■ के कारियों और फकीहों के ये तीनों कौल हैं। इसकी तफ्सील इन्शा-अल्लाह आगे आयेगी। इस सूरत के कलिमात पच्चीस और हुरूफ एक सौ तेरह हैं। इमाम बुखारी किताबुत्तफसीर के शुरू में सही बुखारी में ■ लिखते हैं कि उम्मुल-किताब इस सूरत का नाम इसलिये है कि कुरआन शरीफ की किताब इसी से शुरू होती ■ है और नमाज़ की किराअत भी इसी से शुरू होती है। एक कौल यह भी है कि चूँकि तमाम कुरआन शरीफ की किताब इसी से शुरू होती है और नमाज़ की किराअत भी इसी से शुरू होती है। एक कौल यह भी है। कि चूँकि तमाम कुरआन शरीफ के मज़ामीन मुख़्तसर तौर पर इसमें हैं इसलिये इसका नाम “उम्मुल किताब” है, और अब वालों की आदत है कि हर एक जामे काम और काम की जड़ को जिसकी शाखें और हिस्से उसी के ताबे हों “उम्म” कहते हैं।
देखिये “उम्मुर्रास” वह उस जिल्द (खाल) को कहते हैं जो दिमाग की जामे है, और लश्करी झण्डे और निशान को भी जिसके नीचे लोग जमा होते हैं “उम्म” कहते हैं। शायरों के अश्आर में भी इसका सुबूत मिलता है। मक्का शरीफ को “उम्मुल-कुरा” कहने की भी यही वजह है कि वह सबसे पहले है और सब का जामे है, ज़मीन वहीं से फैलाई गयी है।
तफसीर इब्ने कसीर जिल्द (1)
पारा (1) सूरः फातिहा
चूँकि इससे नमाज़ की किराअत शुरू होती है और कुरआन शरीफ के लिखने के वक़्त भी सहाबा रज़ि. ने इसी को पहले लिखा इसलिये इसे फातिहा भी कहते हैं। इसका एक नाम सही सबज़े-मसानी भी है इसलिये कि यह बार-बार नमाज़ में पढ़ी जाती है। हर रक्अत में इसे पढ़ा जाता है और ‘मसानी’ के मायने ■ और भी हैं जो इन्शा-अल्लाह अपनी जगह बयान होंगे। वल्लाहु आलम ।
मुस्तद अहमद में हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ■ उम्मुल कुरआन के बारे में फरमाया यह “उम्मुल कुरआन” है, यही ‘सबज़े-मसानी’ है और यही ‘कुरआने ■अज़ीम’ है। एक और हदीस में है कि यही ‘उम्मुल कुरआन’ की सात आयतें हैं ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ • भी उनमें से एक आयत है। इसी का नाम सबज़े-मसानी है, यही कुरआने अज़ीम है, यही “उम्मुल किताब” • है, यही “फातिहतुल-किताब” है। दारे कुतनी में भी इसी तरह की एक हदीस है और बकौल इमाम दारे • कुतनी इसके सब रावी सिका (मोतबर और काबिले भरोसा) हैं। बैहकी में है कि हज़रत अली, हज़रत इब्ने – अब्बास और हज़रत अबू हुरैरह रज़ि. ने सबड़े-मसानी की तफ्सीर में यही कहा है कि वह सूरः फातिहा है ■ और “बिस्मिल्लिाहिर्रहमानिर्रहीम” उसकी सातवीं आयत है। “बिस्मिल्लाह” की बहस में यह बयान पूरा आयेगा, इन्शा-अल्लाह तआला।
हज़रत इब्ने मसऊद रज़ि. से कहा गया कि आपने सूरः फातिहा को अपने लिखे हुए कुरआन शरीफ के शुरू में क्यों नहीं लिखा? तो कहा अगर मैं लिखता तो फिर हर सूरत से पहले इसको लिखता। अबू बक्र बिन दाऊद रह. फरमाते हैं- इस कौल का मतलब यह है कि नमाज़ में पढ़े जाने की हैसियत से और चूँकि तमाम मुसलमानों को हिफ़्ज़ है इसलिये लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। ‘दलाईलुन्नुबुव्वत’ में इमाम बैहकी रह. ■ ने एक हदीस बयान की है जिसमें है कि यह सूरत सबसे पहले नाज़िल हुई। बाकिलानी ने नक्ल किया है • कि एक कौल यह है कि सूरः फातिहा सबसे पहले नाज़िल हुई और दूसरा कौल यह है कि “या अय्युहल् मुद्दस्सिर” सबसे पहले नाज़िल हुई जैसा कि सही हदीस में हज़रत जाबिर रज़ि. से मरवी है, और तीसरा ■ कौल यह है कि सबसे पहले “इक़र बिस्मि…….” नाज़िल हुई, और यही सही है। इसकी तफ्सील आगे आयेगी, इन्शा-अल्लाह ।
सूरः फातिहा की फज़ीलत
मुस्नद अहमद में हज़रत अबू सईद बिन मुअल्ला रज़ि. से मरवी है कि मैं नमाज़ पढ़ रहा था और ■ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे बुलाया, मैंने कोई जवाब न दिया। जब नमाज़ से फारिग होकर मैं हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की खिदमत में हाज़िर हुआ तो अपने फरमाया- अब तक किस • काम में थे? मैंने कहा हुजूर! मैं नमाज़ में था। आपने फरमाया क्या अल्लाह का यह फरमान तुमने नहीं सुना?
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اسْتَجِيبُوا لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمْ لِمَا يُحْيِيكُمْ.
ऐ ईमान वालो! अल्लाह के रसूल जब तुम्हें पुकारें तुम जवाब दो।
अच्छा सुनो मैं तुम्हें मस्जिद में जाने से पहले ही बता दूँगा कि कुरआन पाक में सबसे बड़ी सूरत कौनसी है? फिर मेरा हाथ पकड़े हुए जब आपने मस्जिद में जाने का इरादा किया तो मैंने आपका वायदा याद दिलाया, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया वह सूरत “अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन” है। यही सबओ-मसानी है और यही वह कुरआने अज़ीम है जो मुझको दिया गया है। इसी तरह यह रिवायत
• सही बुखारी शरीफ, अबू दाऊद, नसाई और इब्ने माजा में भी दूसरी सनदों के साथ है। वाकिदी ने यह • वाकिआ हज़रत उबई बिन कअब रज़ि. का बयान किया है। मुवत्ता इमाम मालिक रह. में है कि रसूलुल्लाह
■ सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज़रत उबई बिन कअब रजि. को आवाज़ दी, वह नमाज़ में थे, फारिग ■ होकर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मिले। फरमाते हैं कि आपने अपना हाथ मेरे हाथ में रखा मस्जिद से बाहर निकल ही रहे थे कि फरमाया- मैं चाहता हूँ कि मस्जिद से निकलने से पहले मैं तुझे ऐसी ■ एक सूरत बताऊँ कि तौरात, इन्जील और कुरआन में उसके जैसी नहीं। अब मैंने इस उम्मीद पर आहिस्ता- आहिस्ता चलना शुरू कर दिया और पूछा हुजूर! वह सूरत क्या है? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- नमाज़ के शुरू में तुम क्या पढ़ते हो? मैंने कहा “अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन……….. (पूरी सूरत)। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया वह यही सूरत है, सबज़े-मसानी और कुरआने अज़ीम जो मुझे दिया गया है वह भी यही है। इस हदीस के आखिरी रावी अबू सईद रह. हैं, इस बिना पर इब्ने असीर और उनके साथ वाले यहाँ धोखा खा गये हैं। वे उन्हें अबू सईद बिन मुअल्ला समझ बैठे हैं, यह अबू सईद दूसरे हैं, यह मौला खुज़ाई हैं और ताबिईन में से हैं, और वह अबू सईद अन्सारी सहाबी हैं, उनकी हदीस मुत्तसिल और सही है और यह हदीस ज़ाहिर में मुन्क्ता मालूम होती है। अगर अबू सईद ताबिई का हज़रत उबई से सुनना साबित न हो, और अगर सुना हो तो यह हदीस इमाम मुस्लिम की शर्त पर है। वल्लाहु आलम ।
इस हदीस की और भी बहुत सी सनदें हैं। मुस्नद अहमद में है कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब उन्हें पुकारा तो यह नमाज़ में थे, तवज्जोह की मगर जवाब न दिया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फिर पुकारा, हज़रत उबई रज़ि. ने नमाज़ हल्की कर दी और फारिग होकर जल्दी से ख़िदमत में हाज़िर हुई। सलामु अलैक अर्ज किया, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जवाब देकर फरमाया उबई! तुमने मुझे जवाब क्यों न दिया? कहा हुजूर मैं नमाज़ में था। आपने वही आयत पढ़कर फरमाया क्या तुमने • यह आयत नहीं सुनी? कहा हुजूर कसूर हुआ, अब ऐसा न करूँगा। आपने फरमाया क्या तुम चाहते हो कि – मैं तुम्हें एक ऐसी सूरत बता दूँ कि तौरात, इन्जील, ज़बूर और कुरआन में उस जैसी सूरत नहीं। कहा ज़रूर ■ इरशाद फरमाईये। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया यहाँ से जाने से पहले ही मैं तुम्हें बता ■ दूँगा। फिर हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मेरा हाथ थामे हुए दूसरी बातें करते रहे और मैंने अपनी • रफ़्तार धीमी कर दी कि ऐसा न हो वह बात रह जाये और बाहर चले जायें। आख़िर जब दरवाज़े के करीब • पहुँच गये तो मैंने आपको वायदा याद दिलाया। आपने फरमाया नमाज़ में क्या पढ़ते हो? मैंने “उम्मुल् • कुरआन” पढ़कर सुनाई। आपने फरमाया खुदा की कसम जिसके हाथ में मेरी जान है, तौरात, इन्जील, ज़बूर और कुरआन में इस जैसी कोई और सूरत नहीं। यह सबज़े-मसानी है। तिर्मिज़ी में इतनी ज़्यादती और भी है ■ कि यही वह बड़ा कुरआन है जो मुझे अता फरमाया गया है। यह हदीस हसन सही है।
हज़रत अनस रज़ि. से भी इस बारे में एक हदीस मरवी है। मुस्नद अहमद की एक लम्बी हदीस में भी इसी तरह मरवी है। नसाई की रिवायत में ये अलफाज़ भी हैं कि यह सूरत अल्लाह तआला और बन्दे के दरमियान तकसीम कर दी गयी है। तिर्मिज़ी इसे हसन गरीब कहते हैं। मुस्नद अहमद में हज़रत जाबिर रज़ि. से रिवायत है कि मैं एक मर्तबा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया, आप उस वक़्त इस्तिन्जे से फारिग हुए ही थे, मैंने तीन मर्तबा सलाम किया लेकिन आपने एक दफा भी जवाब न दिया। अब आप घर में तशरीफ ले गये, मैं ग़म व रंज की हालत में मस्जिद में चला गया, थोड़ी देर में आप
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– तफसीर इब्ने कसीर जिल्द (1)
पास (1) सूरः फातिहा
तहारत करके तशरीफ लाये और तीन मर्तबा मेरे सलाम का जवाब दिया। फिर फरमाया ऐ अब्दुल्लाह बिन जाबिर! सुनो सारे कुरआन में बेहतरीन सूरत “अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन……. है। इसकी सनद बहुत उम्दा है। इब्ने अकील जो इसका रावी है उसकी हदीस बड़े-बड़े इमाम रिवायत करते हैं और यह ■ जाबिर बिन अब्दुल्लाह से मुराद सहाबी हैं, इब्ने जौज़ी का यही कौल है। वल्लाहु आलम। हाफिज़ इब्ने • असाकिर रह. का कौल है कि यह अब्दुल्लाह बिन जाबिर अन्सारी बयाज़ी रज़ि. हैं।
( कुरआनी आयतें व सूरतें और उनकी आपसी फज़ीलत )
यह हदीस और इस जैसी और हदीसों से इस्तिदलाल (दलील पकड़) करके इब्ने राहवैह, अबू बक्र बिन अरबी, इब्ने हिज़ार वगैरह अक्सर उलेमा ने कहा है कि बाज़ आयतें और बाज़ सूरतें बाज़ पर फज़ीलत • रखती हैं, और एक दूसरी जमाअत का ख्याल है कि कलामुल्लाह तमाम का तमाम बराबर है, एक को एक
पर फज़ीलत देने से यह कबाहत (दिक्कत और परेशानी) होगी कि दूसरी आयतें और सूरतें उससे कम दर्जे • की नज़र आयेंगी, हालाँकि कलामुल्लाह सारा का सारा फ्ज़ीलत वाला है। इमाम कुर्तुबी ने अश्ञ्जरी, अबू बक्र बाकिलानी, अबू हातिम, इब्ने हिब्बान, बुस्ती, अबू हब्बान और यहया बिन यहया से यही नकल किया है।
• इमाम मालिक रह. से भी एक रिवायत में यह मज़हब मन्कूल है (लेकिन सही और मुताबिके हदीस पहला ■ कौल है। वल्लाहु आलम। उर्दू अनुवादक)
सूरः फातिहा के फज़ाईल में ऊपर बयान हुई हदीसों के अलावा और हदीसें भी हैं। सही बुखारी शरीफ फज़ाईलुल-कुरआन में हज़रत अबू सईद खुदरी रज़ि. से रिवायत है कि हम एक मर्तबा सफर में थे, एक ■ जगह उतरे हुए थे अचानक एक बाँदी आयी और कहा कि यहाँ कबीले के सरदार को साँप ने काट खाया है • हमारे आदमी यहाँ मौजूद नहीं, आप में से कोई ऐसा है कि झाड़-फूंक कर दे? हममें से एक शख्स उठकर साथ हो लिया। हम नहीं जानते थे कि यह कुछ झाड़-फूँक भी जानता है। उसने वहाँ जाकर कुछ पढ़कर दम किया, खुदा के फ़्ल से वह बिल्कुल अच्छा हो गया। तीस बकरियाँ उसने दीं और हमारी मेहमानी के लिये दूध भी बहुत सारा भेजा। जब वह वापस आये तो हमने कहा कि क्या तुमको इसका इल्म याद था? उसने कहा मैंने सिर्फ सूरः फातिहा पढ़कर दम किया है, हमने कहा इस आये हुए माल को अभी न छेड़ो, पहले रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मसला पूछ लो। मदीना में आकर हमने हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से ज़िक्र किया, आपने फरमाया इसे कैसे मालूम हो गया कि यह पढ़कर दम करने की सूरत है? इस माल के हिस्से कर लो, मेरा भी एक हिस्सा लगाना। सही मुस्लिम शरीफ और अबू दाऊद में भी यह हदीस है। मुस्लिम की बाज़ रिवायतों में है कि दम करने वाले हज़रत अबू सईद खुदरी रज़ि. ही थे।
मुस्लिम और नसाई में हदीस है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास एक मर्तबा हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम बैठे हुए थे कि ऊपर से एक ज़ोरदार धमाके की आवाज़ आयी। जिब्राईल अलैहिस्सलाम ने ऊपर देखकर फरमाया आज आसमान का वह दरवाज़ा खुला है जो कभी नहीं खुला था। फिर वहाँ से एक फरिश्ता हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आता है और कहता है खुश हो जाईये दो नूर आपको ऐसे दिये गये हैं कि आपसे पहले किसी नबी को नहीं दिये गये। सूरः फातिहा और सूरः ब-करह की आख़िरी आयतें। एक-एक हर्फ पर इनमें से नूर है। सही मुस्लिम में हज़रत अबू हुरैरह रजि. से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया- जो शख्स अपनी नमाज़ में उम्मुल- कुरआन न पढ़े उसकी नमाज़ नाकिस है, नाकिस है, नाक्सि है, पूरी नहीं है। हज़रत अबू हुरैरह रजि. से
तफसीर इब्ने कसीर जिल्द (1)
पारा (1) सूरः फातिहा
• पूछा गया कि जब हम इमाम के पीछे हों तो? फ्रमाया चुपके-चुपके पढ़ लिया करो। मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सुना है आप फरमाया करते थे कि अल्लाह तआला का फरमान है, मैंने • नमाज़ को अपने और अपने बन्दे के दरमियान आधों-आध कर दिया है और मेरा बन्दा मुझसे जो माँगता है। ■ वह मैं देता हूँ। जब बन्दा कहता है “अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन” तो अल्लाह तआला फरमाता है। “हमि-दनी अब्दी” मेरे बन्दे ने मेरी तारीफ की।
फिर बन्दा कहता है “अर्रह्मानिर्रहीम” अल्लाह तआला फरमाता है “अस्नी अलय्-य अब्दी” मेरे बन्दे ने मेरी सना बयान की। फिर बन्दा कहता है “मालिकि ■ यौमिद्दीन” अल्लाह तआला फरमाता है “मज्ज-दनी अब्दी” यानी मेरे बन्दे ने मेरी बुजुर्गी बयान की। बाज़ रिवायतों में है कि अल्लाह तआला इसके जवाब में फरमाता है “फव्व-ज़ इलय्-य अब्दी” यानी मेरे बन्दे ने मेरे सुपुर्द कर दिया। फिर बन्दा कहता है “इय्या-क नबुदु व इय्या-क नस्तीन” अल्लाह तआला फरमाता है यह है मेरे और मेरे बन्दे के दरमियान, और मेरा बन्दा मुझसे जो माँगेगा मैं दूँगा। फिर बन्दा सूरत के आख़िर तक पढ़ता है, अल्लाह तआला फरमाता है यह सब मेरे बन्दे के लिये है और यह जो माँगेगा वह ■ इसके लिये है। नसाई में यह रिवायत है। बाज़ रिवायात के अलफाज़ में कुछ इख़्तिलाफ (भिन्नता) भी है। तिर्मिज़ी ने इस हदीस को हसन कहा है। अबू जुरआ ने इन्हें सही कहा है। मुस्नद अहमद में भी यह हदीस तफसील से मौजूद है। इसके रावी हज़रत उबई बिन कअब रज़ि. हैं। इब्ने जरीर की एक रिवायत में इस हदीस में ये अलफाज़ भी हैं कि अल्लाह तआला फरमाता है- यह मेरे लिये है और जो बाकी है वह मेरे बन्दे के लिये है। यह हदीस ग्ररीब है।